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गुरुदेव श्री ग्ल मनि स्मृनि-ग्रन्थ
कर और मुनि जिनविजय जी उस ग्रन्थ को प्रकाशित कर रहे। गलिए मम्न छाया लियन का काम जो स्वामी जी ने प्रारम्भ किया था, वह रस गया और अब तक पानिपियों हो पढी है।
डा. जैन से पूर्व प्राकृत साहित्य का मक्षिप्त इतिहास प्रोफेसर श्री हीरालाल कापडिया ने गुजगती में लिखा था और वह मन् १९५० में प्रकागिन भी हो गया था। मेरे लेप का और नापडिया के म ग्रन्थ का उपयोग डा. जैन ने भी अपने ग्रन्य में किया है और महायक ग्रन्थों में न ग्रन्य का नाम दिया है। पर उक्त कापडिया के ग्रन्थ मे उल्लसित अलकार-गारत के एक मात्र प्राइन ग्रन्य और गो तरह काम शास्त्र के एक मात्र-प्राकृत ग्रन्य "मदन-मुमुट" का भी उल्लेग ० जन ने अपने अन्य में क्यो नहीं किया? यह विचारणीय है । "मदन-मुकुट" का गर्व प्रथम परिचय भने ही "भारतीय विद्या" में प्रकाणित किया था । बैर, अब हम अलकार-दर्पण के आदि अन्त मी गुछ गाथाएँ उद्धृत कर रहे है।
प्राकृत ग्रन्यो में अलकारो का सबमे प्रथम और महत्त्वपूर्ण उन्नय अनुयोगद्वार-मूत्र में पाया जाता है। नव रसो का मवसे पहले विवरण भी उसी प्रात ग्रन्य में मिलता है। अनुयोगद्वार गूब प्राकृत भाषा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । जिमम अनेक उपयोगी विषयों का निम्पण हुआ है। विद्वानो का ध्यान इस अय के महत्त्व की और शीघ्र ही जाना चाहिए । जैन आगमी में जो प्राचीन भारतीय संस्कृति का सर्वागीण विवरण मिलता है, उसकी ओर अभी तक विद्वानों का ध्यान नहीं गया। अत जिग प्रकार बौद्धो के पालि साहित्य का मूल्याकन देश-विदेश के विद्वानो ने विविध दृष्टियों में किया है, उगी तरह जन आगम आदि प्राचीन ग्रयों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए ।
प्राकृत भाषा से ही अपभ्रश का उद्गम हुआ और अपभ्रग मे ही उत्तर भारत को समस्त प्रान्तीय भाषाओ का विकाम हुआ । हजारो प्राकृत एव देगी गन्द हमारे वोलचाल एव माहित्य में आज भी सामान्य परिवर्तन के साथ प्रयुक्त है । अत प्राकृत-भाषा और साहित्य का अध्ययन गम्भीरता से किया जाना अपेक्षित है । अब अलकार दर्पण के कुछ पद्यो को पढिएप्रादि
सुन्दर पक्ष विण्णास विमललकार-रेहिम-सरीर । सुइ दैविप्र च फव्व च, पण विभ पवर वण्णड्ढं ॥१॥ सम्वाइ कव्वाइ सब्वाइ जेण होति भवाइ । तमलकार भणिमो 5 लकार फु-फवि कव्वाण ॥२॥ अच्चत सुन्दर पि हु निरलकार-जणम्मि फोरंत । कामिणि-मुहं व कव्वं होइ पसण्ण पि विच्छाअ ॥ ३ ॥ ता जाणिकण णिउण, लविखज्जह बहुविहे अलफारे । जेहिं अलंकार आइ, बहु मण्णिज्जति कव्वाई ॥४॥
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