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________________ प्राकृत-भाषा का एक मात्र आलकारिक ग्रन्थ अलकार-दर्पण सबसे अधिक योग जनो का है। अब तक सस्कृत और पालि साहित्य के इतिहास की भाँति प्राकृत के साहित्य का कोई अच्छा इतिहास हिन्दी मे प्रकाशित नही हुआ था। इसलिए प्राकृत-साहित्य की विशालता, विविधता और महत्ता के सम्बन्ध मे पूरी जानकारी नहीं मिल पाई थी। हर्ष का विषय है कि उस कमी की पूर्ति डा. जगदीश चन्द जैन जैसे अधिकारी विद्वान द्वारा हाल ही मे हो गई है। उनका "प्राकृत साहित्य का इतिहास" नामक ग्रन्थ चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है। १०० पृष्ठो के इस वृहद् ग्रन्थ मे डा० जैन ने जैन एव जैनेतर प्राकृत साहित्य का बडे ही अच्छे ढग से विवरण उपस्थित किया है। फिर भी अभी और छोटी बडी शताधिक ऐसी प्राकृत रचनाएँ मेरी जानकारी मे है, जिनका उल्लेख इस ग्रन्थ मे नही हो सका, और उनमे से कुछ तो प्रकाशित भी हो चुकी है। ऐसी रचनाओ का विवरण समय-समय पर कई लेखो द्वारा प्रकाशित करने का विचार है। प्रस्तुत लेख मे प्राकृत भाषा के एक मात्र अलकार ग्रन्थ "अलकार-दर्पण" का सक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। __डा. जैन ने अपने प्राकृत साहित्य के इतिहास के १० वे अध्याय में प्राकृत व्याकरण, छन्द और कोश ग्रन्थो का विवरण देते हुए "अलकार-शास्त्र के ग्रन्थो मे प्राकृत" शीर्षक के अन्तर्गत संस्कृत के प्रसिद्ध अलकार शास्त्रीय ग्रन्थो का विवरण दिया है। पर प्राकृत भाषा के किसी भी स्वतन्त्र अलकार सम्बन्धी ग्रन्थ का उल्लेख उन्होने नही किया। जब कि सन् १९२३ मे प्रकाशित "जैसलमेर जैन भंडागारीय ग्रन्थाना सूचीपत्रम्" जो कि सेन्ट्रल लायब्रेरी बडौदा से गायकवाड ओरियन्टल-सिरीज द्वारा प्रकाशित हुआ था। पृष्ठ २४ मे "अलकार-दर्पण" नामक प्राकृत ग्रन्थ का विवरण अब से ४० वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है । जैसलमेर के बृहद् ज्ञान भण्डार को जिस ताड-पत्रीय प्रति मे ग्रन्थ लिखा हुआ है, उसमे काव्यादर्श और उद्भट्टालकार लघु-वृति भी लिखी हुई है और उसमे से काव्यादर्श के अन्त मे इस प्रति का लेखन काल "सवत् ११६१ भाद्र पदे" दिया हुआ है। इस प्रति मे अलकार विषयक तीन रचनाएं है, उनमे सबसे पहली रचना अलकार-दर्पण तेरह पत्रो मे लिखी हुई है और इसकी गाथाओ की संख्या १३४ है। सन् १९५० मे जब सौजन्य मूर्ति मुनि श्रीपुण्यविजयजी ने जैसलमेर मे चातुर्मास किया और वहां के बडे भण्डार को दिन-रात के कठिन परिश्रम से सुव्यवस्थित कर रहे थे, तो मैं भी अपने विद्वान् मित्र प्रोफेसर नरोत्तमदास स्वामी के साथ वहाँ पहुँचा । और तभी स्वामी जी ने उक्त "अलकार-दर्पण" की ताड-पत्रीय प्रति से अपने हाथ से नकल की थी। इस छोटे से ग्रन्थ को सस्कृत-छाया, हिन्दी अनुवाद और विवेचन के साथ प्रकाशित करने का विचार था। पर कही-कही पाठ अस्पष्ट और अशुद्ध-सा लगा। इसलिए प्राचीन लिपि को पढने मे कही गलती न हो गई हो, यह सोचकर रचना मे रचयिता के नाम का उल्लेख नहीं है। पर प्रारम्भ मे श्रुत देवता का नमस्कार किया गया है। मत रचयिता जैन है, एव सवत् ११६१ की लिखित प्रति होने से इससे पहले की रचना है । मूल प्रति से मिलान करने का कार्य मुनि पुण्य विजयजी को सौपा गया और उन्होने अन्य कार्यों में बहुत व्यस्त होते हुए भी अपनी . सहज उदारता और सौजन्यता से उक्त कार्य को सम्पन्न कर दिया। फिर विदित हुआ कि डा. वेलण
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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