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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ आदि के दो देव-जैनी-ज के बाद हम अब अन्तिम देव-जैनी-ज का उल्लेख करते है । यह ईसा के बाव की पाचवी शताब्दी मे हुए । यह एपोलोनिया के निवासी बतलाए जाते हैं । इन्होने द्रव्य के एकत्व पर बल देते हुए बतलाया, कि विश्व की समस्त वस्तुएँ पारस्परिक ढग से सम्बद्ध है । इनका मत था कि मनुष्य तथा विश्वभर में एक ही प्राण है । मनुष्य को उतना ही ज्ञान होता है, जितना भाग विश्व-व्यापी प्रकाश का वह प्राप्त कर पाता है । इन्होने समकालीन यूनानी और रूमी सामाजिक एवं नैतिक जीवन के खोखलेपन की कटु आलोचना की। इन्हे मानव-शरीर-रचना-शास्त्र (Physiology) और सभवत आयुर्वेद और योग का अच्छा ज्ञान था। यह रमते जोगी (Wandering Teacher) थे । इनका मत अनेकान्तवाद एव समन्वयवाद (Eclecticism) बतलाया जाता है।
अब हम सबसे प्रसिद्ध एव विवादग्रस्त देव-जिनी-ज का सक्षिप्त वर्णन करते है । इनके जीवन काल ही मे लोगो ने इनके पक्ष या विपक्ष मे अफसाने गढने शुरू कर दिए थे, और बाद मे तो इनके बाबत दतकथाओ की भरमार हो गई । ये यूनान मे सुकरात के बहुत बाद मे हुए। कुछ लोग तो इन्हे सिकन्दर का समकालीन बतलाते है।
___ इनके वश के विषय मे, एक कथा मे यह बतलाया जाता है, कि इनके पिता वणिक या शराफ थे जिन्हे सोने और चांदी के सिक्को को बिगाडने के कारण कारावास का दण्ड भोगना सडा । इस पर लडके ने यह कहा कि पिता ने सोने की मुहरे ही बिगाडी है । मैं मानव जीवन के सव मूल्यो को खोखला करके बिगाड दूंगा। उसने यह कर भी दिखाया । कोई कहते है, कि वे नाद (Tub) मे रहते थे। गिल्बर्ट मरे ने यह पता लगाया है, कि उनका निवास स्थान नाद नही, वरन एक बडा मटका था। ऐसे बड़े घडे मे मृतको की अस्थिया गाडी जाती थी। ये अपने पास कोई बरतन नही रखते थे। हाथो को जोडकर ही पानी पी लेते थे । इनके कुत्ते के समान जीवन व्यतीत करने के कारण लोग इनके सम्प्रदाय को कुत्तावाला "सिनिक" सम्प्रदाय कहने लगे । इनके आचार और विचार मे धन, विलासिता, सूफियानापन प्रसिद्धि, सन्मान, इन्द्रियो के समस्त सुख, कला, विज्ञान कौटुम्बिक और सामाजिक एव राष्ट्रीय सुख तथा उत्सव सबके सब उतने ही खोखले, निरर्थक और निन्दनीय है, जितनी कि कामेच्छा और निचली प्रकार की लालसा । इनके अनुसार भलाई, इच्छाओ से मुक्ति प्राप्त करने ही मे है । बुद्धिमान वह हैं, जो घटनाओ के चक्कर से स्वतन्त्र हो जाए । यह प्रचलित सभ्यता, रीति रिवाज, पूजा-अर्चना-सब के विरुद्ध थे। ताओ मत, रोसो तथा टाल्सटाय के समान ये इस बात पर बल देते थे, कि मानवजीवन प्रकृति के अनुकूल हो, और केवल अत्यन्त अनिवार्य आवश्यकताओ ही की पूर्ति की जाए । युवावस्था मे, इनके गुरु ने इन्हे पीट कर भगा देना चाहा । पर यह निश्चय कर चुके थे, कि मैं एंटिसथीनिस को ही गुरू बनाऊंगा। अत यह टस से मस न हुए। तब इन्हे दीक्षा दी गई । बर्देडरसल का कथन है, कि एक बार सिकन्दर महान इनके पास आया और पूछने लगा, कि क्या आप मुझ से किसी प्रकार की कृपा चाहते है, तो इस साधु ने उत्तर दिया "कृपा करके मेरी ओर आने वाले प्रकाश के बाहर चले जाइए"। सम्राटो
और सेनापतियो, सेठो और साहूकारो का इनके दर्शन मे कोई महत्व नहीं था । पर यह मनुष्य मात्र से ही नहीं, वरन पशुओ से भी भाई जैसा स्नेह रखते थे।
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