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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ के मतानुसार आपका जन्म विक्रमाक १४८२ कार्तिक पूर्णिमा को हुआ । लोकाशाह आरम्भ से ही तत्त्वशोषक और सत्य प्रेमी थे । सत्साहित्य के अध्ययन की उनमे बहुत तीव्र अभिरुचि थी । बुद्धि और प्रतिभा प्रखर होने से जैनागमो का मूल रहस्य समझने मे आपको कुछ भी देर न लगी। आपने देखा कि आगम कालीन जैन श्रमण-परम्परा का निर्मल एव विशुद्ध आचार, आज इतना धूमिल हो गया है कि साधु और गृहस्थ मे भेद रेखा खीचना ही कठिन है । अस्तु अपनी समस्त शक्ति को मचित करके आपने तत्कालीन जैन समाज मे वबमूल मिथ्या विश्वास, शिथिलाचार और आडम्बर के विरुद्ध सिंह-गर्जना की । साधु. समाज मे नया जीवन फूंका, नयी चेतना दी और जन-जन के मन मे नयी प्रेरणा भरी । सच्चे और पवित्र साध्वाचार का जयघोष भारत के कोने-कोने मे गूज उठा। धर्मवीर लोकाशाह की धर्म-क्रान्ति का प्रभाव राजस्थान में भी पडा। श्री हीरागर जी की विचार-क्रान्ति को इससे सजीव प्रेरणा प्राप्त हुई और उन्होने आगमानुसार क्रियोद्धार करके शुद्धाचार की दुन्दुभि वजा दी। मारवाड और मेवाड आदि प्रदेशो मे आप की धर्म-क्रान्ति का स्वर कुछ इस प्रकार मुखरित हुआ कि यति-परम्परा के सैकडो ही यति शुद्धाचार का पालन करने के लिए आपके शिष्य हो गए। आपने अपनी साधु-शाखा का नाम नागौरी लोकागच्छ रखा, जो आगे चलकर बडी तीव्र गति से दूर-दूर तक फैल गई। प्राचार्य रूपचन्द्र श्री रूपचन्द्र जी महाराज, हीरागर जी के प्रभावक शिष्यो मे प्रमुख स्थान रखते थे। आपने नौ लाख जितने पितृ-धन को त्याग कर अठारह वर्ष के उभरते यौवन मे दीक्षा ग्रहण की। आपने अपने क्रान्तिकारी प्रवचनो से एक लाख अस्सी हजार जन-समूह को शुद्ध जैन-धर्म का अनुयायी बनाया । आप उग्र तपस्वी और क्रियोद्धारक थे । आपके तप प्रभाव से महिम शहर मे, कहा जाता है, पूर्णभद्र देव धर्मानुरागी हुआ। आपके युग मे नागौरी लोकागच्छ ने काफी विस्तार पाया । कुछ विद्वान और पट्टा वलीकार तो आपको ही नागौरी लोकागच्छ का प्रवर्तक मानते है। प्राचार्य दीपागर आप श्री रूपचन्द्र जी के चरणो मे दीक्षित हुए। प्रखर आगमाभ्यासी और सुप्रसिद्ध तपोधन । आपने भी अपने प्रभावशाली शुद्ध सयमी जीवन से एक अनुश्रुति के अनुसार, ३६६० परिवारो को आत्मकल्याण के प्रशस्त पथ पर आरुढ किया। खेद है, आपकी परम्परा मे पुन शनै शनै शिथिलाचार प्रवेश पाने लगा, फलस्वरूप धर्म-ज्योति धूमिल होती चली गई। भाचार्य वयरागर आचार्य वस्तुपाल आचार्य कल्याणदास
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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