________________
क्या देव-जैनीज (Diogenes) जैन थे?
डा० बजगोपाल तिवारी डी. लिट. - + -+-+-+-+-+-+
++++++++++++++++++-+-+-+
प्राचीन वातो की खोज, कभी-कभी नामो की ध्वनि के सादृश्य के आधार पर और कभी-कभी सिद्धान्तो तथा व्यवहारो के सादृश्य के आधार पर की जाती है। उदाहरणार्थ ध्वनि के मादृश्य के आधार पर, कुछ लोगो का मत है कि अरवी शब्द "जिन" (अर्थात् एक प्रकार का प्रेत) और भारतीय शब्द, "जैन” दोनो एक ही प्रकार के है । दिगम्बर सम्प्रदाय के कुछ अतिशयवादी सन्त जो वैराग्य की मस्ती में स्वच्छन्दता पूर्वक नगे वदन, शरीर पर धूल की परवाह न करते हुए इधर-उधर विचरते थे, उनके विकराल रूपो मे प्रेतो के रूपो से विदेशियो को मादृश्य मिला, इमलिए वे लोग प्रेतो को "जिन" कहने लगे।
अब सिद्धान्तो तथा व्यवहारो के सादृश्य को लीजिए। इस सादृश्य के आधार पर डा. हीरालाल जैन अपनी पुस्तक "भारतीय संस्कृति मे जैन-धर्म का योगदान" में यह सिद्ध करने का प्रयल करते है कि ऋग्वेद मे उल्लखित केशी, वृपभ तथा वातरशना मुनि ऋषभदेव से भिन्न नहीं थे। वैदिक ऋपियो के विपरीत, ये "वातरशना मुनि" समस्त गृह-द्वार, स्त्री-पुत्र, धन-धान्य आदि परिगह यहाँ तक कि वस्त्र का भी परित्याग कर, भिक्षावृत्ति से रहते थे। शरीर का "स्नानादि सस्कार न कर" मल धारण किए रहते थे। मौनवृत्ति से रहते थे। इस प्रकार वातरशना या गगनपरिधान-वृत्ति, केशधारण, कपिश वर्ण, मलधारण, मौन, उन्माद-भाव आदि व्यवहार सम्बन्धी लक्षणो तथा देवताओ के आराधन को छोडकर, आत्मध्यान सम्बन्धी विचारो के बल पर, विद्वान लेखक यह सिद्ध करने का यल करते है, कि जैन धर्म, अपने प्राचीन रूप मे, ई० पूर्व १५०० मे प्रचलित था।
३८४