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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-अन्य
ढुंढका प्रथिल-प्राया, लुकाव्यवाहिता यमः,
उन्मत्त वद्व न्त्येवाहज्चत्याचा-निषेधनम् ॥
उत्सूत्राण्यष्टपञ्चाशतसंख्यानि भाषितानि तः। दुण्ढकंथिलत्वेन स्वीयसंसार-द्धितः ।
ग्लोक ३६-३० उक्त ५८ बोलो मे से कई बोल तो इस विषय के है, कि भगवान महावीर ने तो आत्यन्तिक अहिंसा को ही धर्म कहा है । अत वैसी कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिए, जिससे हिंमा होती हो। हिमा के विषय मे उपदेश देना भी एक प्रकार की हिंसा ही है। हिंसा का उपदेश भी हिंसा का ममर्थन तो अवश्य है और यह भगवान् के धर्म के विपरीत है । इस प्रसग पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की चर्चा का होना भी स्वाभाविक ही था । इस विषय से संबद्ध प्रश्न नम्बर इस प्रकार से है-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १७, २०, २१, ४०, १४१, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, ५४, ५५ और ५८ ।
जो थोडे बहुत प्रश्न मूर्ति-पूजा से सवद्ध है, जिनमे जैन-आगमो मे आए हुए मन्दिरो का उल्लेख, पूजा के उल्लेख तीर्थों के उल्लेख, प्रतिमा निर्माण की चर्चा, प्रतिमा को प्रतिष्ठा, प्रासाद निर्माण और चैत्य शब्द के विषय मे उल्लेख है और स्थापना निक्षेप आदि की चर्चा है । इसके लिए देसिए प्रश्न नम्बर-७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १८, १९, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४२, ५३, और ५६ । इसके बाद मे यथा प्रसग शास्त्र-प्रमाण की चर्चा भी की गई है । देखिए-~-प्रश्न नम्बर ५७ मे ।
मुनि श्री पुण्यविजय जी के सग्रह की पोथी नम्बर ४१२१ मे, लुकानी हुडी ३३ बोल है। उसके दो पत्र है । इसमे नियुक्ति भाष्य, चूणि और वृत्ति को सर्वांश मे प्रमाण मानने वालो के लिए ऐसी बातो का सग्रह किया गया है, जिन पर वे गम्भीरता के साथ में विचार करके निर्णय करें, कि सर्वाशत उक्त ग्रन्थ प्रमाण मानने योग्य है, या नही । विशेषतः निशीथ चूणि मे जो अपवाद की चर्चा है, उसी के विषय मे प्रश्न किया गया है, कि यह कहाँ तक उचित है । अपवादो की सगति कैसे की जाए? इस प्रकार के अपवादो का निरूपण भगवान् के मार्ग मे सगत नही है । यह १ से २५ वे बोल का विषय है । अन्त में बताया गया है कि जिस निशीथ चूणि मे इस प्रकार की बातो का उल्लेख हो, उसे सम्पूर्ण रूप से अथवा सर्वाशत. कैसे प्रमाण माना जाए जिन-जिन बातो मे उनका विरोध था, उन बातो के विषय में उसके प्रामाण्य को वे नही मानते थे । इसका अर्थ यह नही, कि निशीथ चूणि को सर्वाशरूप से अप्रमाण करार दे दिया जाए । २५ वें बोल मे इसी पर विचार किया गया है।
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