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________________ लोकाशाह और उनकी विचार-धारा इस चर्चा से सिद्ध होता है, कि लोकाशाह ने स्वय तो मुख-वस्त्रिका नही बाधी थी । दूसरी बात इस चर्चा से यह सिद्ध होती है, कि आज के स्थानकवासी और तेरापन्थ मे जो मुख-वस्त्रिका बाधने का प्रयोग है, उसका मूल विक्रम संवत् १६८७ से प्राचीन सिद्ध नहीं होता। परन्तु इसमे अभी अनुसन्धान को अवकाश है। हस्त-प्रतियो का परिचय मैने अपने प्रस्तुत लेख में जिन प्रतियो का यथाप्रसग निर्देश किया है, उनके विषय मे थोडा परिचय देना, मैं यहाँ आवश्यक समझता हूँ। उनमे से एक है-लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृतिविद्यामन्दिर के मुनिराज श्री पुण्यविजय जी के संग्रह की पोथी, जिसका नम्बर है २९८६ और जिसके वेष्टन पर लिखा है-"लुकाना सद्दहिया अठावन बोल विवरण" । इस प्रति की प्रथम पक्ति मे इस प्रकार से लिखा हुआ है- "लु काना सद्दहिया अनई कर्या बोल ५८ लिखई छई।" इसका फलितार्थ होता है-लोकाशाह के द्वारा श्रद्धित तथा कृत ५८ बोलो का विवरण उक्त नाम के पहले पक्ति के प्रारम्भ में हडताल है और फिर लिखा है-"गुरुभ्यो नम ।" मालूम पडता है कि गुरु का नाम काट दिया गया है। अन्त में भी इस प्रथ के संस्कृत नाम पर हडताल फेरी हुई है । परन्तु उसे इस प्रकार से पढा जा सकता है- "इतिश्री लुपकेन कृता अष्टपञ्चा विचारश्च ।" और फिर लिखा है-लुकाना सद्दहिया अनई करिया अठावन बोल अनई तेहनु विचार लिखउ छई । शुभ भवतु । . इस प्रति के पत्रो की संख्या १५ है और उनका लेखन-काल लगभग १७ वी सदी है। यह प्रति पत्र १५ की प्रथम बाजू पर परिसमाप्त होती है । अन्त मे ५४ बातो की एक सूची भी दी गई है, जिसके विषय मे पूछा गया है, कि इन सब बातो का मूल सिद्धान्त-सूत्रो मे उल्लेख कहाँ पर है ? इसमे उस काल के आचार और विचार की उन बातो का समावेश किया गया है, जिनके बारे मे लोकाशाह के अनुयायी अपने विरोधियो से पूछा करते थे । तात्पर्य यह है कि इन ५४ बातो मे मूर्ति-पूजक और लोकाशाह के अनुयायियो मे मतभेद था । प्रस्तुत लेख के प्रसग से जिन अनेक प्रतियो को मैंने देखा उनके अध्ययन से मुझे ऐसा लगता है, कि लोकाशाह के ५८ बोलो का और ५४ बोलो का यथाशक्य और यथा समय उत्तर देने का प्रयत्न किया गया था। ५८ बोलो के उत्तर का तो उल्लेख भी मिलता है। सम्यक्त्व-परीक्षा विबुधविमल द्वारा विक्रम संवत् १८१३ मे रचित सम्यक्त्व-परीक्षा नामक ग्रन्थ का एक प्रकरण तो इसी ५८ बोल के विरुद्ध लिखा गया है, उसमे लिखा है कि "नाना जैन-चैत्यानि, पर सम्यक्त्व-साधनम्। जैनाभासमत-भ्रान्त निषिध्यन्ते कुयुक्तिभिः॥ ३२१
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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