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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य प्रभाव मारवाड तक पहुंचा था । और वहाँ पर भी गुग के बिना ही दीक्षा लेने की प्रथा प्रारम्भ हो गई थी। उक्त वर्णन से यह भी सिद्ध होता है कि मूर्ति-पूजा विगंधी होने के कारण ही ये सब लोकागच्छीय कहे जाते थे । परन्तु प्रारम्भ में उनका कोई व्यवस्थित एव मघटित गच्छ नही बना था। धीरेधीरे गच्छ का विकास हुआ होगा। मुख-वस्त्रिका की चर्चा लोकाशाह ने अपने युग में मूर्ति-पूजा और तत्मवद्ध अन्य बहुत-मी वातो का विरोध किया था। इसमे किसी भी प्रकार की शका को अवकाश नहीं है । परन्तु मुस-वम्पिका के विषय में उनके क्या विचार थे? इस विषय मे विचारणा को अवश्यकता है। जहां तक मुग-बस्मिका की मत्ता का और उसकी उपयोगिता का सवाल है, उमम मूर्ति-पूजक और न्यानस्वामी परम्पग में किसी भी प्रकार विचार-विभेद नही है। इसमें मूल आगमी का भी आधार है ही । अत मुस-वस्त्रिमा की मत्ता और उपयोगिता में भेद न होकर, उसके प्रयोग में ही वस्तुत विचार-भेद रहा हुआ है । श्वेताम्बर परम्परा को शाखा और उपशाखाओं में मुख-वस्त्रिका का प्रयोग तीन पद्धतियों में किया जाता रहा है १. मुख-चस्त्रिका की आठ परत बनाकर, उसमे डोग डालकर, मदा मुन पर बांधे रखना। २ कान में मुख-वस्त्रिका के दोनों कोनो को पिरोकर केवल व्याख्यान के ममय मुग्म और नाक दोनो ढक रखना। ३. मुख-वस्त्रिका को हाथ मे रख रखना, जब वोलना हो, तब मुम्ब को ढक लेना। पहली पद्धति का प्रचलन आज के ममग्र स्थानकवासी सम्प्रदायों में और तेरापन्य में है । दूसरी पद्धति लोकागच्छ के यतियो मे और कुछ सवंगी सन्तो मे रही है। तीसरी पद्धति आज के समस्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में चल रही है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर मुझे ऐमा प्रतीत होता है, कि लोकाशाह ने डोरा डालकर मुख-वस्त्रिका नही वापी थी। भाणा भी साधुवेप धारण करते समय में मुस-वस्त्रिका के विषय में चालू परम्परा से अलग नहीं हुए थे। फिर वाधने की प्रथा कब से चल पड़ी। इस विषय में मुनिराज पुण्यविजय जी के सग्रह की प्रति नम्बर ४८३७ में बताया गया है, कि वुद्धिविजयजी के कथनानुसार मुख-चस्त्रिका को हाथ मे रखने का प्रचलन प्राचीन युग मे था । परन्तु विक्रम संवत् १००८ में कानो के छेदो मे मुख वस्त्रिका के कोनो को पिरोकर व्याख्यान के समय वाघने की परम्परा प्रारम्भ हुई। फिर विक्रम संवत् १५३१ मे (किसी के मत मे १५३०, १५३३, १५३४) मे लोकागच्छ शुरू हुआ। उस गच्छ के उत्तराधिकारी यतियो ने मुख-वस्त्रिका मे तणिया अर्थात कम टांककर एव मुखबांधकर व्याख्यान देने की परम्परा चली । बुद्धि विजय जी ने आगे बताया है कि विक्रम संवत् १६८७ मे ढुढिया पन्य के लोगो ने मुख-वस्त्रिका मे डोरा डालकर मुख-वस्त्रिका सदा वाधे रखना प्रारम्भ किया । ३८०
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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