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________________ लोकाशाह और उनकी विचार-धारा है। मुनिराज पुण्यविजय जी के संग्रह की दश प्रश्नरूप "दुढक हुडी" मे-प्रति नम्बर २५१५ जिसकी प्रतिलिपि विक्रम संवत् १८८४ मे हुई-एक प्रश्न किया गया है, कि आप नन्दी सूत्र को तो मानते ही है । उसमे अनेक ऐसे आगमो का उल्लेख है, जो आपको मान्यता के अनुसार ३२ से बाहर है । फिर आप ३२ को ही क्यो मानते है ? मूल ३२ ही आगमको मान्यता रूढ हो जाने के बाद टीका आदि का अभ्यास लुप्त हो गया। यही कारण है कि इस परम्परा मे कितने ही ऐतिहासिक तथ्यो का लोप हो गया । ज्ञान का बहुभाग हाथ से निकल गया। आगम के कर्ता कौन ? स्थानकवासी परम्परा की मान्यता के अनुसार ३२ आगम भगवान महावीर की वाणी है। परन्तु ३२ मे परिगणित दशवकालिक सूत्र गणप्रकृत न होकर आचार्य शय्यभवकृत है। जब कि स्थानकवासी परम्परा के विश्वास के अनुसार सभी आगम अर्थत भगवान् महावीर की वाणी और शब्दत गणधरकृत है । इस विसंगति का उसके पास कोई समाधान नहीं है । वृत्ति और टीकाओ की उपेक्षा करके इस परम्परा ने अपना किसी प्रकार का हित साधन नही किया। नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीका युग की परम्परा इसके हाथो से निकल गई। फलत स्थानकवासी सम्प्रदाय मे आज आचार और विचार की बहुत-सी बातें ऐसी है, जिनके विषय मे उसके द्वारा मान्य ३२ आगमो मे कुछ भी उल्लेख नही हैकेवल परम्परागत ही हैं । अत टीका-युग की समग्न परम्परा को न मानने पर बहुत-सी बाते निर्मूल बन जाती है, या फिर उन्हे नवीन मानना ही पड़ेगा । उस स्थिति मे यह दावा गलत होगा, कि हम ही भगवान महावीर के सच्चे अनुयायी है । सम्प्रदाय-भेद धर्मसागर उपाध्यायकृत "प्रवचन-परीक्षा" के अनुसार लोकाशाह के सभी अनुयायी भी अपने आप को लोकाशाह का अनुयायी नही मानते थे। वे अपने आप को वीर जिनमार्ग का अनुयायी कहते थे। इसी प्रकार भाणा ऋषि के अनुयायी अपने आपको वीर मार्ग का अनुयायी मानते थे। ऐसा क्यो मानते थे। इस विषय मे "प्रवचन-परीक्षा" के विश्राम ८ और गाथा १२ को टीका में बताया गया है, कि लोकाशाह के अनुयायी दो गच्छो' मे विभक्त थे-गुर्जरीय अर्थात् गुजरात के और दूसरे नागपुरीय अर्थात् नागौर के । भाणा ने वि० १५३३ मे स्वय ही वेष धारण किया था। अत लोकाशाह उनके गुरु नही हो सकते। प्रवचन-परीक्षा कार के युग मे भाणा की परम्परा मे दीक्षित केशवसिंह विद्यमान थे' और वे गुजरात के लोकागच्छ के थे । परन्तु जिस समय भाणा के पांचवे पाट पर जगमाल हुए, उस समय रूपचन्द्र जी ने नागपुर अर्थात् नागौर मे स्वय दीक्षा ग्रहण की थी। और पर्षि के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होने विक्रम संवत् १५८४ मे अलग होकर नागौरीगच्छ की स्थापना की थी। इस प्रकार भाणा की जो परम्परा चली आ रही थी। वह गुजरात के लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस पर से मालूम पड़ता है कि गुजरात मे लोकाशाह और लखमशी ने मिलकर जो विचार का प्रचार किया, उसका ३७६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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