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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-अन्य
नही, बल्कि पैतालीस आगम उन्हे मान्य थे । यह बात उनसे पूछे गए एक प्रश्न पर से फलित होती है। एक हस्त-प्रति मे लिखा है, कि लोकाशाह से पूछा जाए, कि कितने सिद्धान्त-सूत्रो को आप प्रमाण मानते है? यदि वे कहते है, कि पंतालीस को, तो उन पंतालीस सिद्धान्त-सूत्रो का नाम उनसे लिसा लिया जाए । क्योकि चर्चा करने से पूर्व इसलिए लिखना आवश्यक है कि उनका आधार हमे ज्ञात हो जाए। उक्त हस्त-प्रति मे ही आगे चल कर कहा है-"यदि आप "पिण्ड नियुक्ति" को प्रमाण नहीं मानते है, तो बताइए, कि आपने आगमो की पैतालीस सख्या पूरी कैसे की ? इस प्रकार के उल्लेख के लिए देखिए लालभाई दलपतभाई विद्या मन्दिर के श्री पुण्यविजय जी के सग्रह की प्रति नम्बर ३४०६ मे प्रश्न १ तथा २।
आगमों की संख्या में मतभेद
निस्सन्देह लोकाशाह के लगभग १०० वर्ष वाद भी आगमो की संख्या के विपय मे मतैक्य नही हो सका था । विक्रम संवत् १६२९ मे लिसित "प्रवचन-परीक्षा" मे उपाध्याय धर्मसागर जी ने स्पष्ट बतलाया है कि लोकाशाह के अनुयायियो मे कुछ २७ सूत्रो को प्रमाण मानते है, और कुछ २६ को । आगे चलकर इस प्रकार का उल्लेख भी मिलता है, कि ३० सूत्रो को प्रमाण मानते हैं । देखिए-सुयविचार आनन्द जी कल्याण जी के शान्तिसागर सग्रह की प्रति लालभाई दलपत भाई विद्या मन्दिर नम्बर ५०६ मे । इस प्रति मे ३० सूत्रो के आधार पर ही मूर्ति पूजक सम्प्रदाय की ओर से मूर्ति-पूजा का समर्थन किया गया है । इससे ३० सूत्रो की मान्यता फलित होती है । इस पर से यह कल्पना सहज ही की जा सकती है कि लोकाशाह ने स्वय तो उस काल में मान्य आगमो की कुछ ही वातो पर-विशेषत वृत्ति और टीका की कुछ बातो पर आपत्ति की होगी । परन्तु आगे चलकर तो उनके अनुयायियो ने, जिन्हे आगम और उनकी टीकामओ का विशेष ज्ञान नहीं होगा, जो लोग शास्त्रो का अर्थ केवल टब्बाको के आधार पर ही करते होगे-उन्होने खुलकर आगमो की वृत्ति और टीकामओ का बहिष्कार किया था। उन्होंने ऐसा करके अपने सम्प्रदाय का कोई हित किया था, यह नही माना जा सकता । लोकाशाह ने शास्त्र अध्ययन का जो द्वार सर्व साधारण के लिए खोलाथा, उसे सकुचित कर दिया गया। फलत स्थानकवासी सम्प्रदाय मे प्राकृत और सस्कृत पढने की प्रवृत्ति का लोप हो गया । इस बीसवी सदी मे उस प्रवृत्ति को पुन. चालू करने के लिए स्थानकवासी साधु वर्ग को काफी सघर्ष करना पडा है । और आज का साधु वर्ग-जिसमे मुख्यत. स्थानकवासी और तेरापन्य है-फिर से आगमो की नियुक्ति, भाष्य, चूणि, वृत्ति और सस्कृत टीकाओ के अध्ययन की ओर झुका है । परन्तु कहना चाहिए, कि कुछ विद्वानो को छोडकर, शेप मे अभी तक प्रौढता और गम्भीरता नहीं आ सकी है ।
बत्तीस पागम
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानकवासी परम्परा मे ३२ आगमो की मान्यता-दुठिया सम्प्रदाय की स्थापना के बाद मे ही हुई होगी। क्योकि परवर्ती साहित्य मे सर्वत्र ३२ का ही उल्लेख उपलब्ध होता