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________________ लोकाशाह और उनकी विचारधारा कार कर दिया । लोकाशाह स्वय लिपिक थे । अत उन्हे तो योगोदहन के बिना ही शास्त्र अध्ययन का अवसर मिल गया था। और जो लाभ उन्हे मिला, वह उनके अनुयायियो को क्यो न मिले? लोकाशाह का ऐसा विचार रहा होगा । उस युग के विरोधी लोगो द्वारा उन पर यह आक्षेप भी होता रहा था, कि आपने शास्त्र अवश्य पढे है, परन्तु गुरु मुख से नही पढे । अत. आपके ज्ञान को विशुद्ध ज्ञान नही माना जा सकता । लोकाशाह ने सबके लिए शास्त्र पढने का द्वार खोलकर एक बहुत बडी क्रान्ति की थी, परन्तु दूसरी ओर चरित्र पर, क्रिया पर एव दया पर अधिक भार देकर ज्ञान के विकास का मार्ग भी बन्द कर दिया । फलत. उनके अनुयायियो मे क्रिया-मार्ग तो खूब चला, परन्तु ज्ञान-मार्ग प्राय बन्द-सा ही हो गया । उस युग के विरोधी लोग लोकाशाह पर मह भी आक्षेप करते थे, कि भगवान् ने तो ज्ञान,दर्शन और चरित्र तीनो को मिलाकर मोक्ष-मार्ग कहा है, फिर आप केवल चरित्र पर ही इतना भार क्यो देते है ? ज्ञान के बिना चरित्र विशुद्ध नही बनता । विरोधियो के उक्त आक्षेप मे सत्याश अवश्य था । आज भी स्थानकवासी परम्परा मे ज्ञान की कमी प्रत्यक्ष ही है । यह सब कुछ ज्ञान-मार्ग के विरोध का ही प्रतिफल है, जो कभी उसके पूर्व-पुरुषो ने बिना सोचे-समझे किया था। मूर्ति-पूजक परम्परा का यह कहना कि गुरु मुख से ही शास्त्र पढना, यह उनका एकान्त आग्रह था । क्योकि इस एकान्त आग्रह के कारण ही जैनो ने बहुत कुछ खो दिया है । गुरु-ग्रन्थी के दोष के कारण ही तो जैन परम्परा मे से अनेक विद्याओ का लोप हो गया। मत दोनो पक्षो का एकान्तवाद उचित नहीं कहा जा सकता। श्रावक भी शास्त्र पढ़ सकता है उस युग में मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार श्रावक के लिए शास्त्र अध्ययन का निषेध था । साघु । वर्ग श्रावक को मूल पाठ नही पढाता था, केवल अर्थ बोध कराना ही उचित समझता था । परन्तु इस मान्यता के विरोध मे लोकाशाह ने श्रावको के लिए भी शास्त्र अध्ययन का द्वार खोल दिया था। इस बात का उल्लेख अनेक स्थानो पर की गई चर्चा से विदित होता है । फिर भी उसका लाभ उठाने वाले श्रावको की संख्या नगण्य जैसी ही थी। इसका मुख्य कारण मुझे तो यह प्रतीत होता है कि ज्ञान-साधना की अपेक्षा आचार पर ही अधिक भार दिया गया था। आगम और टीकाएँ आज का स्थानकवासी सम्प्रदाय और उसमे से उत्पन्न तेरापन्थ सम्प्रदाय केवल बत्तीस मूल आगमो को ही प्रमाण मानता है । आगमो की व्याख्या नियुक्ति । भाष्य, पूणि और टीकामो को प्रमाण न मानने का आग्रह दोनो का समान है । परन्तु उसके प्रवर्तक लोकाशाह को तो पैतालीस आगम प्रमाण थे, इसका उल्लेख मिलता है । उक्त दोनो हस्त-प्रतियो मे बत्तीस आगमो को ही प्रमाण मानने जैसा किसी भी प्रकार का आग्रह नही है। लोकाशाह तो यह कहते है कि "नियुक्ति, भाष्य, चूणि, वृत्ति और टीकाओ मे जो सूत्र विरुद्ध बाते है, उन्हे प्रमाण कसे माना जा सकता है ?" लेकिन जिनका सिद्धान्त-सूत्रो के साथ मे मेल बैठ जाता है, उन्हे प्रमाण मानने मे क्या हानि है ? मूल आगमो मे भी केवल बत्तीस ही
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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