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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ इसके विपरीत जव शान्त चित्त वाले लेखको ने विरोध की आग का उपगमन कर दिया, तो लोकागाह की प्रगति मन्द पड गई और एक प्रकार से वह व्य भी गई । कुछ दूसरे लेपको ने लोकागाह के विरोध मे आवेशपूर्ण-भाषा में बहुत कुछ लिखा था। इस प्रकार के माहित्य मे दलील और तक से अधिक क्रोध और रोप ही प्रतीत होता है। उसमे लोकाशाह को बदनाम करने की भावना विशेष रुप मे परिलक्षित होती है । फलत पक्ष और विपक्ष दोनो ओर मे घात और प्रतिधान चलते है तथा दूपित साहित्य की रचना होती है । स्थानकवामियों ने भी इस प्रकार का योटा बहुत माहित्य लिया ही था। जो लोग विचार करने में समर्थ नही थे, वे अपनी-अपनी सम्प्रदाय में दृढ रहे। इस प्रकार मूर्तिपूजक मम्प्रदाय के दूपित माहित्य का फल स्थानकवामी सम्प्रदाय को सुदृढ करने में महायक स्प से ही सिद्ध हुआ, जो उनको अभीष्ट नहीं था । अत विवेक ग्वीकर कुछ भी कहना और लिपना अनुचित ही है। एकान्त प्राचार लोकागाह ने "पढम नाण तमो दया" इस मूत्र वाक्य के एक अग को लेकर दया पर तो भार दिया, पर ज्ञान को गौण कर दिया । जान-शून्य जड क्रिया मे अनेक अनयं खडे हो गए। स्थानकवासी परम्पग ज्ञान-शून्य बन गई । इस एकान्तवाद का परिणाम लोकागाह के अनुयायियों के लिए अच्छा नहीं रहा । विरोधी पक्ष के लोगो ने लोकाशाह पर यह आक्षेप किया था, कि वे ज्ञान को गौण करके एक मात्र क्रिया पर जोर देते हैं । इस आक्षेप में कुछ सत्यता तो अवश्य थी। क्योकि इस परम्परा के माधुओ ने मात्र दया और तपस्या के बल पर ही पूज्यत्व प्राप्त करने का प्रयल किया था। उनकी प्रतिष्ठा का आधार केवल घोर क्रिया काण्ड ही रह गया या । परन्तु शान-पक्ष का निरादर करने के कारण उम सम्प्रदाय में ऐसे समर्थ साधु नही निकल सके, जो मूर्ति-पूजक विद्वान माधुओ को यया उत्तर दे मकते । यही कारण है कि लोकाशाह के अनुयायियो मे मे बहुतो ने बाद में पुन धर्म-परिवर्तन कर लिया और मूर्ति पूजक सम्प्रदाय मे जा पहुंचे । धर्म परिवर्तन के अनेक उल्लय पोयी-पन्नो में उपलब्ध होते हैं । लगभग ५०० वर्षों के इतिहास मे लोकाशाह की परम्परा के किसी मुनि ने किसी महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की हो, यह देखने मे नही आया । केवल दया पर भार देने मे और ज्ञान का मार्ग बन्द कर देने का ही यह फल है। आज की इस वीसवी सदी में ज्ञान और विज्ञान का प्रचार और प्रसार बहुत बढ गया है । ज्ञान और विज्ञान के विविध क्षेत्रो मे अपना प्रभुत्व स्थापित करने वाला कोई भी मुनिराज आज दीग्व नही पडता । इस वर्तमान शताब्दी में भी उम प्राचीन जान परम्परा का जो बहुमूल्य उत्तराधिकार है, उमकी भी उपेक्षा की जा रही है। योगोद्वहन के बिना आगम पठन लोकाशाह ने गुरु-मुख से शास्त्र पढने की परम्परा का विरोध किया और सबके लिए शास्त्र पढने का द्वार खोल दिया । हर किसी को अपनी बुद्धि से अर्थ लगाने की एट दे दी । शास्त्र अध्ययन के लिए उस काल मै और आज भी मूर्ति पूजक परम्परा में प्रचलित योगोद्ववहन की प्रक्रिया को सर्वथा अस्वी ३७६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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