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________________ लोकाशाह और उनको विचार-धारा यह बात निश्चय पूर्वक कही जा सकती है, कि लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध अवश्य किया था और उन्होने अपने अनुयायियो को अहिंसा के उत्कट मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न किया और उसमे वे अशत सफल भी हुए । क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है। इस सिद्धान्त के अनुसार जैसे-जैसे और जितनी तीव्रता से लोकाशाह के अनुयायियो ने मूर्ति-पूजा का निषेध किया, वैसे-वैसे और उतनी ही तीव्रता से मूर्ति-पूजको का मूर्ति-पूजा मे विश्वास दृढ होता गया। जब लोकाशाह ने मूर्ति पूजा का विरोध शास्त्र के आधार पर करना आरम्भ किया, तब मूर्ति-पूजको ने उन्ही शास्त्रो के आधार पर मूर्ति-पूजा का प्रबल समर्थन भी किया । फलत जो लोग लोकाशाह के अनुयायी नही थे, उनके मन मे मूर्ति-पूजा की दृढ आस्था जम गई। मूर्ति-पूजा के समर्थन मे जो दलील और तर्क दिए जाते हैं, उनमे से शास्त्र के अनुसार एक तर्क यह भी है कि दशवैकालिक-सूत्र मे स्त्रियो का चित्र देखने का निषेध किया गया है। इसका मुख्य कारण यह है, कि उस चित्र को देखने से मन मे विकार की उत्पत्ति होती है । जब कि सामान्य चित्र को देखकर मन मे विकार की उत्पत्ति हो सकती है, तब भगवान की मूर्ति के दर्शन करने से मनुष्य के चित्त मे समताभाव की उत्पत्ति क्यो नही होगी ? अत मूर्ति-पूजा का विरोध करना व्यर्थ है । इस तर्क मे तथ्य अवश्य है । परन्तु इसके उत्तर मे यह भी कहा जा सकता है कि निश्चय ही भगवान की मूर्ति को देखकर समता उत्पन्न होनी चाहिए, परन्तु शतं इतनी ही है कि वह मूर्ति मन मे समता-भाव पैदा कर सके, इस रूप मे रहनी चाहिए । यदि मूर्ति आडम्बर पूर्ण है, रेशमी वस्त्र, हीरे, मोती, पन्ने एव आभूषणो से लदी है, तब वह दर्शन करने वाले के चित्त मे समता पैदा न करके विषमता पैदा करेगी। इस स्थिति मे वह एक प्रशम-रस-निमग्न व्यक्ति का नही, बल्कि एक सम्पन्न व्यक्ति का चित्र उपस्थित करती है। फिर उससे ससार के बाल जीवो को प्रशम और वैराग्य की प्रेरणा कैसे मिल सकती है? आज के मूर्ति-पूजको को इस पर गम्भीरता के साथ विचार करना चाहिए । लोकाशाह ने भी अपने युग मे यही कुछ किया था। क्योकि उस युग मे मूर्ति-पूजा मे अत्यधिक विकार पैदा हो गए थे। उन विकारो का विरोध होना ही चाहिए था और वह लोकाशाह के द्वारा हुआ भी। मत में परिवर्तन परन्तु आगे चलकर लोकाशाह के मत का विरोध करने वाले भी अनेक निकल आए और उनमे से एक वर्ग ऐसा भी निकला, जिसने विवेक और बुद्धिमत्ता के साथ उक्त समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। उन्होंने लोकाशाह के प्रश्नो का उत्तर शास्त्र के आधार पर शान्त-भाव से दिया । इसका परिणाम यह निकला, कि लोकाशाह के बहुत से अनुयायी पुन मूर्ति-पूजक बन गए । जिन लोगो ने मूर्ति-पूजा में हिंसा और अहिंसा का विचार न करके केवल भावना वश मूर्ति-पूजा को छोड़ दिया था, उन्हे समझाने वाला जब एक बुद्धिमान वर्ग मिल गया, तो पुन मूर्ति-पूजा की ओर लौट पडे । इस प्रकार के लेखको ने लोकाशाह की विचारधारा को मन्द कर दिया । जब विरोधी पक्ष की ओर से कटु अविवेकी विरोध लोकाशाह का किया गया, तब उनका मन उतना ही अधिक बढा और पनपा, परन्तु ३७५
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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