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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ कैसे लाया जा सकता है ? साधना के मार्ग पर इस प्रकार एकान्त आग्रह से काम नहीं चलता । क्योंकि सभी साधको की योग्यता समान नही हो सकती । अत लोकाशाह जब यह कहते है कि मूर्ति-पूजा मोक्ष का साधन न होकर ससार वृद्धि का कारण है, तब उनकी इस बात मे आग्रह प्रतीत होने लगता है। यह मान लिया जाए कि मूर्ति-पूजा में जो अनेक प्रकार के आडम्बर आ चुके है और उन आडम्बरो के कारण मूर्ति-पूजा में हिंसा को अवकाश मिल जाता है। फिर भी वह एकान्त ससार का ही कारण है, यह कैसे कहा जाए । पूजा में हिंसा की विचारणा लोकाशाह ने अपनी मान्यता का प्रतिपादन करने के लिए तथा शास्त्र के तात्पर्य को अपने अनुकूल बनाने के लिए जो प्रयल किया था, उसमे भी उनकी मम्प्रदाय भावना ही मुस्य थी। मान लिया जाए, कि प्रारम्भ में जैन धर्म में मूर्ति-पूजा नही थी, परन्तु भगवान ने यह तो कही भी नही कहा है, कि जो प्राचीन परम्परा से प्राप्त नहीं है, उसे नहीं करना चाहिए । जन-धर्म के इतिहास में मूर्तिपूजा का प्रवेश एक साधन के रूप में हुआ था। देश-काल की आवश्यकता ने उम साधन को प्रस्तुत किया और लोगो ने उसे अपना लिया। उस साधन में आई हुई बुराइयो को दूर करना एक बात है, और उस साधन का ही निरन्तर विरोध करना यह एक अलग बात है । यदि कपड़े में मैल लग जाता है, तो उसे साफ कर लिया जाता है न कि उसे सर्वथा फेक दिया जाए। केवल साधारण-सी हिंसा के कारण सम्पूर्ण मूर्ति का विरोध करना उचित नहीं था । उपदेश तो यह होना चाहिए था, कि मूर्ति पूजा मे होने वाली हिंसा को टाला जाए। किन्तु लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा को ही मिटाने का प्रयत्न किया । इसका परिणाम यह हुआ कि हिंसा का सूक्ष्म विचार करते-करते नव कोटि को हिमा से दूर नही रहा जा सकता, अतएव किसी को साधु भी नहीं बनना चाहिए, प्रत्यारयान भी नहीं करना चाहिए-हिसा की विचारणा मे इतनी दूर तक जाना पड़ा । इस पर से पता चलता है, कि हिंसा का विचार करते समय विवेक से काम नहीं लिया गया। मूर्ति विरोध की अनुकूलता लोकाशाह के विषय मे यह भी उल्लेख मिलता है, कि मुस्लिम शासको का भी उनको सहयोग एव बल मिला था। क्योकि मुस्लिम शासक स्वभाव से ही मूर्ति-पूजा के विरोधी थे। अत. यदि लोकाशाह को मुस्लिम शासको का सहयोग एव बल मिल गया हो, तो इसमे कोई आश्चर्य की बात नहीं । परन्तु इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मूर्ति-पूजा मे बाह्य आडम्बर बहुत बढ गया था। जब कि मुस्लिम शासक मूर्ति-पूजा के सर्वथा विरोधी थे, ऐसे अवसर पर लोकाशाह के लिए मूर्तिपूजा का विरोध बहुत सरल हो गया था। उस युग की जनता ने विचार किया कि मूर्ति-पूजा का विरोध करने से बादशाह खुश होता है, तो जनता ने खुले रूप मे लोकाशाह का समर्थन कर दिया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ३७४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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