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________________ लोकाशाह और उनकी विचार-धारा प्रकार से वे अपने विरोधियो से अपनी बातो पर विचार करने की प्रार्थना करते थे। सत्य को समझने के लिए विनती करते थे । इससे उनके चित्त की शान्ति का और अपने विरोधियो को उत्तर देने की उनकी मधुर शैली का परिचय मिलता है। जहाँ विचारो के संघर्ष का अवसर आता है, वहाँ पर कुछ न कुछ थोडी-बहुत कटुता आ ही जाती है, किन्तु लोकाशाह मे यह कटुता आई नही, यह निस्सन्देह सत्य है। धर्म-प्रचार लोकाशाह ने जिस सत्य की प्रतीति की थी, यदि उसका उन्होने प्रचार किया, तो इसमे उनका कोई अपराध भी नहीं था। क्योकि प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारो के प्रचार मे स्वतन्त्र है । लगभग पच्चीस वर्षों तक लोकाशाह ने विरोधियो का विरोध सहन किया, इसके बाद उनके बहुत से अनुयायी हो गए और उनमे से अनेक लोगो ने साधु वेप धारण करके उनके मत का प्रचार भी किया था। उनका प्रचार कैसा और कितना हुआ? इसमे कुछ भी निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। फिर भी इतना अनुमान तो लगाया ही जा सकता है, कि उनके प्रचार का क्षेत्र पहले सीमित होगा और फिर धीरे-धीरे फैलता-फैलता आगे बढा होगा । उनके प्रचार की पद्धति यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात और उनके शिष्यो जैसी रही होगी, जिसमे सवाद और प्रश्नोत्तर तथा चर्चा-वार्ता करके अपने विचारो को अभिव्यक्त किया जाता था, क्योकि आज जैसे प्रचार साधन उस युग मे कहा थे? परन्तु उनके प्रचार की मन्दता का सबसे प्रबल प्रमाण यही है, कि पच्चीस वर्षों की लम्बी अवधि तक भी उन्हे कोई उनके मतानुसार साधुवेप धारण करने वाला नही मिला । सम्प्रदायो के इतिहास को देखने से इस बात का निश्चय हो जाता है कि जब किसी भी मान्यता का ऐकान्तिक विरोध खडा किया जाता है, तब ही सम्प्रदाय बनता है । यदि विरोध करने वालो मे, विवेक हो, तो सम्प्रदाय खडा नही हो सकता। विवेक से काम लेने पर तो किसी भी मान्यता के गुण और दोप दोनो दिखाना आवश्यक हो जाता है । ऐसी परिस्थितियो मे नया सम्प्रदाय बन नही सकता। ऐकान्तिक आग्रह मे से ही सप्रदाय का निर्माण होता है । अतएव यह कहा जा सकता है कि अनेकान्त के आश्रय से सम्प्रदाय पनप नहीं सकता। यह तो एकान्तवाद मे ही पनप सकता है। लोकाशाह के विषय मे ऐसा ही कुछ घटित हुआ। उन्होने अपना एक विचार-सूत्र बनाया, कि “जहाँ पर दया है, वहाँ धर्म है। तथा जहाँ हिंसा है वहाँ अधर्म।" इस विचार-सूत्र के आधार पर उन्होने प्रतिमा-पूजा का विरोध किया । क्योकि लोकाशाह के विचार के अनुसार प्रतिमा के निर्माण मे हिंसा थी और उसके पूजा के प्रकार मे भी हिंसा थी । परन्तु यहाँ पर लोकाशाह निश्चय-नय और व्यवहार-नय के समन्वय को भूल गए थे। मनुष्य अपनी योग्यता के अनुसार ही धर्म के मार्ग पर अग्रसर होता है। किसी भी साधना मे अधिकारी भेद को समझना आवश्यक हो जाता है । धर्म की जो साधना १३ वे गुणस्थान से १४ वे गुणस्थान मे जाने के लिए होती है, वही साधना प्रथम गुणस्थान वाले के लिए भी आवश्यक है-इस प्रकार का आग्रह करने से सामान्य व्यक्ति को धर्म के मार्ग पर
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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