SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ शान्त हो गया, तब उन्होंने लोकाशाह की मूर्ति-पूजा विरोधी मान्यता को धीरे-धीरे छोड दिया होगा। इस सम्बन्ध में विक्रम संवत् १६२६ मे रचित "प्रवचन-परीक्षा" में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि आचार्य हीरविजय जी ने एक ऐसा अपूर्व कार्य किया था, जो जैन गामन के ममग्र इतिहाम में अद्भुत था। वह कार्य, यही था, कि उन्होंने लोकाशाह के अनुयायियो को युक्ति और तर्क में ममझा दिया था, कि मूर्ति-पूजा का विरोध उचित एव न्याय संगत नही है । फलत लोकाशाह के ही अनुयायी मेघजी ऋषि ने अपने शिष्य परिवार के साथ में अकबर को साक्षी बना कर अहमदावाद में आ० हीर विजयजी को निश्राय मे पुन दीक्षा ग्रहण करली थी। इस घटना का प्रभाव लोकागाह के अन्य अनुयायियों पर भी अवश्य पडा होगा । इस प्रकार मूर्ति-पूजा के विरोधियों में फिर से मूर्ति पूजा का प्रारम्भ हुआ होगा। यही कारण है कि आगे चलकर लोकागच्छ ने अपने आदि-पुरुप के नाम को तो मुरक्षित रखा, परन्तु उनके मूल सन्देश को भुलाकर फिर से मूर्ति-पूजा प्रारम्भ कर दी। इस विषय में विशेप विचार तो लोकागच्छ के इतिहास का पता लगने पर ही किया जा सकता है। केवल अनुमान और कल्पना के आधार पर मत्य का निर्णय नहीं किया जा सकता। लोकाशाह का शास्त्र-ज्ञान मूर्ति-पूजक परम्परा की ओर से लोकाशाह पर सबसे बडा आक्षेप यह था कि वह तो केवल एक लिपिक था अर्थात् लहिया था-शास्त्र लिखकर अपना निर्वाह करने वाला था। परन्तु "लुकाना सहिया ५८ वोल" और "लुकानी हुँडी ३३ बोल" के अध्ययन में उक्त आक्षेप असत्य प्रमाणित हो जाता है। माधारण लहिया शास्त्र ज्ञान की इतनी गहराई मे कैमे पहुंच सकता है ? अत लोकागाह को शास्त्र-जान नही या यह आक्षेप कथमपि उचित नहीं है। क्योकि पूर्वोक्त ५८ बोल मे और ३३ वोल में, आचाराग, सूत्रकृतांग, स्थानाग, समवायाग, दशाश्रुत स्कन्य, भगवती, माताधर्मकथाग, राजप्रश्नीय, अनुयोगद्वार, नन्दी सूत्र, ज्ञाताधर्मकथाग की टीका, उत्तराध्ययन, औपपातिक सूत्र, जीवाभिगम, उपासक दशा, प्रश्न व्याकरण, दशवकालिकसूत्र, प्रज्ञापना, आचाराग नियुक्ति और आचाराग वृत्ति, विपाक, उत्तराध्ययन चूणि तथा वृत्ति, आवश्यक नियुक्ति, बृहत्कल्प वृत्ति तथा चूणि और निशीय चूणि आदि में से अनेक पाठो का अवतरण करके विस्तृत चर्चा की गई है। इस पर से भली भांति ज्ञात हो सकता है कि लोकाशाह केवल लिपिक ही नहीं थे, उन्हे शास्त्रो का विस्तृत ज्ञान था। सामान्य लहिया इतनी चर्चा कैसे करेगा। विनम्र स्वभाव पूर्वोक्त बोलो की चर्चा के अध्ययन से लोकाशाह के विनम्र तया विनीत स्वभाव का भी पता चलता है। लोकाशाह के अनेक विरोधियो मे जो कटुता, कठोरता और तीखापन था, उमका जरा भी आभास लोकाशाह की वाणी मे प्रतीत नही होता । वे अपने विरोधियो को विनम्र-भाषा मे यही कहते थे-"जो बुद्धिमान हैं, वे मेरी बातो पर विचार करे । जो विवेकी है वे मेरी बातो को सोचे और समझे।" इस ३७२
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy