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लोकाशाह और उनकी विचार-धारा
है कि विक्रम संवत् १७०६ मे बजरग (अर्थात् यति वजरग जी) पट्टधर हुए और उनके शिष्य लवजी जो सूरत के रहने वाले थे, उनसे पृथक् हुए। लवजी के शिष्य सोम जी, उनके शिष्य कान जी और उनके शिष्य धर्मदास जी-इन सबने टूटे-फूटे मकानो मे वास किया था, अत वे सब ढुंढिया कहलाने लगे । परन्तु लालभाई दलपत भाई विद्या मन्दिर की पोथी नम्बर ६५८ मे बताया गया है कि ऋषिभाणा का अपने गुरू के साथ विक्रम सवत् १७७५ मे झगडा हो जाने के कारण वे अलग हो गए थे ओर वे ही आगे चलकर ढुढिया के नाम से प्रसिद्ध हुए । सम्भवत लेखक की गलती से विक्रम संवत् १७०५ का १७७५ हो गया हो परन्तु अधिकतर सम्भावना यही है कि विक्रम संवत् १६८७ मे ढुंढिया अलग हो गए थे।
प्रादि-पुरुष
__ जिस प्रकार तेरापन्थ सम्प्रदाय ढूंढिया सम्प्रदाय से पृथक् होकर भी बहुत समय तक ढुंढिया के नाम से ही पहचाना जाता रहा था, उसी प्रकार यह स्वाभाविक है, कि लोकागच्छ से पृथक् होने के बाद भी ढुंढिया सम्प्रदाय लोकागच्छ के नाम से परिचित रहा हो और चूकि लोकाशाह मूर्ति-पूजा के विरोध मे थे । अत मूर्ति-पूजा के विरोधी अन्य भी सम्प्रदायो का झुकाव लोकाशाह की ओर होना अस्वाभाविक नही था, सम्भवत इसी आधार पर लोकाशाह कुँढिया पन्थ के आदि-पुरुष माने जाते रहे होगे, परन्तु सत्य तो यह है, कि जिस-जिस व्यक्ति के कारण मूल सम्प्रदाय से उपसम्प्रदाय पृथक हुमा, उस उस व्यक्ति को ही उस सम्प्रदाय का आदि-पुरुष मानना उचित एव न्याय संगत है। जैसे कि मूर्ति पूजा विरोधी होने पर भी आज का तेरा पन्थ सम्प्रदाय अपने आपको लोकाशाह का अनुयायी न कहकर, भीखण जी का अनुयायी कहता है और अपने सम्प्रदाय का आदि पुरुष उन्ही को मानता है । स्थानकवासी सम्प्रदाय के अन्तर्गत भी जिस व्यक्ति ने जिस प्रदेश मे रहकर सुधार किया, उस व्यक्ति की सम्प्रदाय उस प्रदेश के नाम पर खड़ी हो गई। जैसे गुजरात और सौराष्ट्र मे—लीबडी, बोटाद, गौडला, बरवाला और सायला आदि । मालवा मे धर्मदासजी की सम्प्रदाय । मारवाड, मे हुकमचन्द्र जी की सम्प्रदाय और जयमलजी की सम्प्रदाय । उत्तर प्रदेश मे पूज्य मनोहरदास जी की सम्प्रदाय और पजाब मे अमरसिंह जी की सम्प्रदाय आदि । इस प्रकार इन सब सम्प्रदायो मे और उनके उपसम्प्रदायो मे उनके आदि-पुरुषो का नाम आज भी सुरक्षित है। लेकिन इन सभी सम्प्रदायो और उपसम्प्रदायो के मूल मे मूर्ति-पूजा विरोध ही एक ऐसी वस्तु है, कि उन सबका सम्बन्ध लोकाशाह के साथ मे जोड देती है। जिस प्रकार जैन धर्म की सभी शाखा एव उपशाखाओ का सम्बन्ध अन्त मे भगवान् महावीर के साथ मे स्वत ही जुड़ जाता है।
लोकागच्छ द्वारा पुनः मूर्ति-पूजा का स्वीकार
एक प्रश्न अवश्य ही विचारणीय है, और वह यह है कि जब लोकाशाह ने मूर्ति पूजा का घोर विरोध किया था, तब उसी के अनुयायी लोकागच्छ ने फिर से मूर्ति-पूजा को क्यो स्वीकार कर लिया? वह क्यो और कब से हुआ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है, कि लोकाशाह के कुछ काल वाद तक तो उनके अनुयायी उनके मार्ग पर चलते रहे, परन्तु आगे चलकर जब अनुयायियो के मन का जोश
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