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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्थ
"सिर मुंडावई मल घरई, विहरद्द फाटा वेस | मल चीगट चीवर घरई, पात्रि हो न दीहि लेप । नीच कुल लोई आहारि..."
अत यह निश्चय - पूर्वक कहा जा सकता है, कि वे पान रमते थे ओर भिक्षा-चर्या करते थे । परन्तु उस युग के साधुओ मे प्रचलित उच्चकुल को ही भिक्षा लेने की प्रथा का परित्याग उन्होने कर दिया था और जहाँ-तहाँ से भिक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया था। उनकी यह रीति जैन धर्म की प्राचीन प्रथा के अनुकूल थी । सम्भवत उग युग के समाज के विरोध के कारण भी उनको ऐसा करना पडा । ढुंढ़िया सम्प्रदाय
आज का स्थानकवासी समाज अपने को लोकाशाह का अनुयायी मानता है । परन्तु विक्रम संवत् १६२९ में रचित " प्रवचन- परीक्षा" के लेखक उपाध्याय धर्मसागर का कथन है, कि उस समय मे लोकाशाह के मार्ग का अनुगमन करने वाले लोग अपने को "वीरजिन मार्ग के अनुयायी" कहते थे । भाणाऋषि की परम्परा के अनुयायी भी अपने आप को भाणापन्थी न कहकर भगवान् महावीर के अनुयायी कहना पसन्द करते थे । इस प्रकार का उल्लेस विश्राम ८ और गाथा १२ मे है । यद्यपि वर्तमान काल के लोकागच्छ ने लोकाशाह के नाम को सुरक्षित रखा है, तथापि उसने मूर्ति-पूजा का परित्याग नही किया, जब कि लोकाशाह ने स्वय मूर्ति पूजा का विरोध किया था । उपाध्याय धर्मसागर कृत "प्रवचन-परीक्षा" मे-जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् १६२९ है - कही पर भी ढुंढिया गब्द का उल्लेख नही मिलता । इसके दो अभिप्राय हो सकते हैं - एक तो उस समय तक ढुंढिया सम्प्रदाय प्रकट नही हुआ होगा, दूसरे प्रकट होने पर भी वह उस समय तक प्रसिद्ध मे नही आया होगा । स० १६८७ के बाद तो प्राय ढूंढिया नाम से लोकाशाह के अनुयायी पहचाने जाते थे ।
लवजी ऋषि
लोकागच्छ से ढुंढिया कव अलग हुए, इस विषय मे अनेक उल्लेख उपलब्ध होते है । मुनि राज श्री पुण्यविजय जी के सग्रह की पोथी नम्बर ४८३७ मे "मुखपत्ति चर्चा " मे उल्लेख मिलता है, कि विक्रम संवत् १६९७ मे बुढिया सम्प्रदाय अलग हुआ था। उक्त सग्रह की पोथी नम्बर ५६६७ मे विक्रम संवत् १६८७ मे ही ढुंढिया सम्प्रदाय के अलग होने का उल्लेख मिलता है । पूज्य अमोलक ऋषि ने अपनी शास्त्रोद्धार मीमासा" मे लिखा है, कि लोकागच्छ के यतिवर जग जी से सूरत निवासी लवजी ने विक्रम संवत् १७०५ मे दीक्षा ग्रहण की थी । परन्तु आगे चलकर लवजी अपने गुरु से अलग हो गए थे और वे ढुंढिया कहलाने लगे, क्योकि वे ढुंढ अर्थात् टूटे-फूटे मकानो मे रहते थे । आचार्य आत्मानन्द सूरि वे अपने "सम्यक्त्व - शल्योद्वार" मे हीरकलश की " " कुमति विघ्वस चौपाई" के आधार पर लिखा
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