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लोकाशाह और उनकी विचारधारा
थी । प्रतीत होता है, कि भाणा ने विधि-पूर्वक पांच महाव्रतो का ग्रहण नहीं किया था, साथ मे उनका वेष भी तत्कालीन साधुओ से भिन्न था ही। "प्रवचन-परीक्षा" के अनुसार तत्कालीन साधुओ के वेष मे निम्न वस्तुओ का समावेश था
१. कमर मे डोरे से बधा हुआ चोलपट्टक २ रजोहरण ३ मुखवस्त्रिका ४ ओढने की चादर ५. कषे पर कबल ६. बांये हाथ मे दण्ड ७ परम्परानुसार विधि पूर्वक दोनो कानो मे छेद
परन्तु वि० १६२९ मे उपाध्याय धर्मसागर ने लोकागच्छ के जिन विषधरो को अपनी आँखो से देखा था, उनमे रजोहरण का भेद था। उनका कहना है कि लोकागच्छ के वेषधर केवल नाम मात्र के लिए रजोहरण रखते है और वह परम्परागत चले आ रहे रजोहरण से भिन्न प्रकार का है । अतः उनके वेष को साधु वेष नहीं कहा जा सकता।
लोकाशाह का वेष
परन्तु लोकाशाह का वेष कैसा था? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। उनके समकालीन घेला ऋषि ने उनसे उनकी मान्यता के विषय में एक प्रश्न पूछा था, कि "आप जैसा चोलपट्टक पहनते है, वैसा किस सूत्र मे लिखा है ?" इस प्रश्न पर से ऐसा प्रतीत होता है कि लोकाशाहं तत्कालीन परम्परा के श्वेताम्बर साधु वर्ग में प्रचलित रीति के अनुसार चोलपट्टक नही पहनते थे। सभव है कि उनका चोलपट्टक पहनने का ढग आज के स्थानकवासी साधु जैसा होगा- इसके लिए देखिए-मुनिराज पुण्यविजय के संग्रह की पोयी नम्बर ७५८८ और प्रश्न नम्बर ८६ । लोकाशाह के वेष के विषय मे एक अन्य पोथी मे वर्णन इस प्रकार मिलता है
"नवि ओघउ नवि मुंहती। नवि कंबल नवि दण्ड ॥"
यह उल्लेख लालभाई दलपतभाई विद्या मन्दिर के मुनिराज पुण्य विजय जी के सग्रह की पोथी नम्वर २३२८ का है । इस पर से मालूम होता है, कि लोकाशाह ने स्वय एक चोलपट्टक और दूसरी
ओढने की चादर-ये दो वस्त्र रखे होगे । पात्र भी रहा था । इनके सिवा अन्य जो भी उपकरण उस युग के साधु सम्प्रदाय मे प्रचलित थे, उनको ग्रहण नहीं किया होगा। आगे चलकर उक्त प्रति मे ही यह भी लिखा है, कि
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