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________________ गुरुदेव श्री ग्ल मुनि स्मृति-ग्रन्य भी मतभेद उत्पन्न हो गए थे। मतभेदो की यह परिस्थिति लगभग विक्रम मवन् १५४८ में थी। विक्रम संवत् १५३४ मे तो वैषधरो की उत्पत्ति ही हुई थी। उसके दग वर्ष बाद में ही ये मतभेद पटे हो गए थे । उक्त १५३४ सवत् के विषय में मतभेद ग प्रकार है-१५३०, १५३१ अथवा १५३८ । १५०८ मे, जव लोकागाह द्वाग विरोध प्रारम्भ हुना, तभी उक्त सभी विरोधों के सम्बन्ध में लोकाशाह ने एकदम अपना मन्तव्य प्रकट कर दिया होगा, सा मानन का और विश्वास करने का कोई कारण नही है । यया में लोकागाह और लयमगी ने जैसे-जैसे अपने गाम्न-ग्वाध्याय को आगे बढाया, बैमे-वैसे अनेक वातो के विषय में विचार भेद की कटी आगे बटनी रही। अत अपनी उत्पत्ति के समय से लेकर आगे के दम वर्षों तक प्रतिमा-पूजा के छोड़ने के माथ-गाथ अन्य भी अनेक बातो या परित्याग किया होगा-यह मोचना यथार्य है। वेष-परिवर्तन लोकाशाह कौन थे? इसके बाद में यह प्रश्न उठता है क्या लोकागाह ने माधु का वेग ग्रहण किया था? इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता, कि लोकागाह ने विगी के पाम मिमी प्रसारमा बन स्वीकार किया हो । क्योकि प्राय सभी का यह आक्षेप है, कि लोकागाह ने किमी को अपना गुरु बनाए विना ही भिक्षाचरी प्रारम्भ करदी थी। मेरे विचार में यह वात मत्य है। लोकागाह के लिए यह सम्भव ही नही था, कि जिम परम्परा के माय में विरोध चल रहा हो, उगी में मे किमी को गुरु स्वीकार करके वे दीक्षा ग्रहण करने । इसके अतिरिक्त उम परम्परा का कोई भी यनि उन्हें दीक्षा दे, इमकी भी सम्भावना बहुत कम थी । अपना लिपन का काम छोडपर विनममवन् १५०८ मे, जिम पनि परम्पग का उन्होंने विरोध किया, उमी के पान दीक्षा ग्रहण करना, कथमपि मम्भवित नहीं जान पड़ता । परन्तु यह भी मत्य है कि लोकागाह ने गृह-न्याग किया था और ब भिक्षा-जीवी भी बने थे। भाणा-ऋषि वस्तुत जिमे लोकागच्छ कहा जाता है, उसका प्रारम्भ १५०८ में नहीं, वरिक उममें जब वेषधर हुए, तभी मे मानना चाहिए । किन्तु वेपघर कब और कमे हए ? यह भी एक मवान है। विक्रम मवत् १६२६ मे रचित प्रवचन-परीक्षा के अनुसार कहा जाता है कि मिगेही के समीप अरघट्टक जिमे आज अठवाडा कहते है, वहाँ के रहने वाले पोग्वाल जाति के भाणा नाम के एक व्यक्ति ने विक्रम मवत् १५३३ मे स्वय ही वेप धारण किया था । अत नभी मे लोकाशाह के अनुयायी वैपधरी की उत्पत्ति मानी जानी चाहिए। कमलसयम (१५४४-४६) का कहना है कि भाणा के मत परिवर्तन में स्वय लोकाशाह निमित्त नही थे । अपितु लखमशी को प्रेरणा मे ही उनका विचार परिवर्तन हुआ था। कमल मयम के कथनानुसार भाणा ने भिक्षाचारी का व्रत तो लिया था, पर उनको गणना न तो यतियो में थी और नही श्रावको में। वे न साधु थे और न गृहस्य थे । अत उनकी गणना मघ में नहीं की जाती ३६०
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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