________________
लोकाशाह और उनकी विचार-धारा
लोकाशाह द्वारा विरोध '
आचार-शास्त्र के कठोर नियमो के प्रतिपादक आचारांग और दशवैकालिक जैसे सूत्रो के मूलमात्र के अध्ययन से और उस युग मे व्याप्त शिथिलाचार को देखकर प्रथम तो लोकाशाह ने उस युग की साधु-सस्था का विरोध किया होगा, यह अनुमान करना अनुचित न होगा। फिर आगे चलकर उन्होने जो मूर्ति-पूजा का विरोध किया उसके दो आधार हो सकते है- एक लखमशी के साथ शास्त्रो का गहन चिन्तन और दूसरा मुसलिम शासको द्वारा मूर्ति-पूजा विरोधी भावना का प्रसार, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव कबीर - साहित्य मे स्पष्ट है । विक्रम संवत् १५४४ - ४९ के बीच लिखित कमलसयम रचित " कुमतकदली - कृपाणिका" चौपाई लोकाशाह के विषय मे इस प्रकार लिखा गया है
साधू निन्दा अहनिस करइ ।
धर्म घडा बंघ ढीलउ घरई ॥ तेहन सिस्य मिल्यो लखमसी ।
तेहनी बुद्धि हियाथी खसी ॥ टालई जिन प्रतिमानुं मान ।
दया-दया करि टालइ दान ॥ टालs विनय विवेक विचार ।
टालइ सामायिक उच्चार ॥
useमणानूं
टालइ नाम । भमइ पढ्या घणा तिहि गाम ॥
लखमशी
देखो, लाल भाई दलपत भाई विद्या मन्दिर के सग्रह की प्रति नम्बर २१५, और " जैन साहित्य का मक्षिप्त इतिहास" पृष्ठ ५०७ । उक्त कृति मे आगे चलकर कहा गया है कि लोकाशाह मत के वेषधर विक्रम संवत् १५३४ मे हुए और लगभग उसी समय मे फीरोजखान ने मन्दिर तथा पौषधशालाओ को नष्ट-भ्रप्ट करना प्रारम्भ कर दिया था। इस प्रकार के वातावरण मे लोकाशाह और लखमशी के मूर्ति-पूजा विरोधी विचारो का प्रभाव तत्कालीन जन-मानस पर पडना स्वाभाविक ही था । लोग राज्य आतक से आतकित थे । पौषध-शाला मे जाने की हिम्मत भी कोई विरला ही कर पाता था । उस युग मे जैनो के ही नही, बल्कि कुछ अन्य भी भारतीय जनो के मन मे मन्दिरो के प्रति आकर्षण कम होने लगा था । अत मूर्ति पूजा के विरोध के लिए रास्ता साफ था, जिसका लाभ लोकाशाह को सहज मे ही मिल गया । उक्त उल्लेख से दूसरी बात यह सिद्ध होती है, कि लोकाशाह का पहला विरोध केवल साधु-सस्था के प्रति था, किन्तु आगे चलकर लखमशी के प्रभावशाली सहयोग के मिलने पर उस विरोध मे से अन्य भी अनेक अंकुर फूट पडे । जैसे - मूर्ति पूजा के विरोध के साथ-साथ मन्दिर और तीर्थयात्रा का विरोध भी प्रारम्भ हो गया । सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और दान आदि के विषय मे
३६७