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________________ गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ को मैंने देखा । लेकिन इतने भर से ही इतिहास तैयार नहीं होता। इसके लिए स्थानकवासी सम्प्रदाय के भण्डारो का अनुसन्धान परम आवश्यक है । उभय पक्ष की पोज होने पर ही किमी अन्तिम निर्णय पर पहुंचा जा सकता है। परन्तु यह मेरे लिए अभी मम्मवित नही था । फिर भी उक्त विद्या मन्दिर मे पक्ष और विपक्ष की जो भी और जितनी भी सामग्री उपलब्ध हो सकी है, उमी को आधार बनाकर मैं यहां कुछ लिखने का प्रयत्न कर रहा हूँ । सत्य को समझने का मेरा यह एक प्रयल है, उसे में अपनी अन्तिम सोज नही मानता हूँ। लोकाशाह लोकाशाह के मत के प्रतिकार म्प में छोटी बढी मिलाकर अनेक रचनाएं विद्या मन्दिर के भण्डार में उपलब्ध है। किन्तु इनके अलावा दो हस्त-प्रतियां वा ही महत्व की है। उनके अध्ययन से मुझे यह विश्वास होता है, कि उक्त दोनो प्रतियो का मोधा सम्बन्ध लोकागाह मे अवश्य है । क्योकि लोकाशाह के मत को, उनकी विचारधारा को उसमें स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया गया है। यदि इममे शकाको अवकाश मिल सकता है, तो केवल इतना ही कि उक्त दोनो हस्त-प्रतियां लोकागाह को स्वरचित है, या नहीं ? फिर भी मेरे विचार मे अधिकतर सम्भावना यही है, कि उन दोनों की रचना लोकाशाह ने स्वय की है, अथवा उनके आदेश के अनुमार उनके निकटस्थ किमी व्यक्ति ने की है। लेकिन इतना तो मत्य है, कि वे दोनो लोकाशाह की विचारधारा को प्राचीनतम हस्त-प्रतिया है। उक्न हस्त-प्रतियो का नाम इस प्रकार है - १ लुकाना सद्दहिया अने कर्या ५८ बोल २. लुकानी हुडी ३३ वोल. अपने इस प्रस्तुत लेख में, दोनो प्रतियो का आधार लेकर तथा लोकाशाह के विरोध में लिखित अनेक अन्य रचनाओ की तुलना करके सत्य को गोध का प्रयत्न होगा, उसे अन्तिम निर्णय कहना मुझे अभीष्ट नहीं है। सबसे पहला प्रश्न है, कि लोकाशाह कौन थे? इस विषय में जनश्रुति कुछ भी हो, पर अनुसन्धान के आधार पर यह कहा जा सकता है, कि ये लिपिक थे, वणिक जाति के मेहता वशीय थे और अहमदाबाद के रहने वाले थे। विक्रम संवत् १५०८ मे उनका यतिवर्ग से मतभेद हो गया था । मतभेद होने के बाद में उनका परिचय लखमशीजी से हुआ था, जो स्वभाव से उग्र एव कठोर थे और अमात्य पद पर थे। यह वात "प्रवचन-परीक्षा" के अध्ययन से विदित होती है, जिमकी रचना विक्रम संवत् १६२६ मे हुई थी। लखमशी जी ने एक बार अपने परिचित यति से सिद्धान्त ग्रन्थ पढाने की प्रार्थना की थी, परन्तु परम्परा के अनुसार यति ने पढाने से इन्कार कर दिया। इस पर से बहुत कुछ सम्भव है, कि लखमशी का झुकाव उधर से हटकर लोकाशाह की ओर हो गया होगा। क्योकि लोकागाह लिपिक थे, अनेक शास्त्र उन्होने अपने हाथ से लिखे थे, और साथ मे तीन जिज्ञासा वृति होने के कारण उन्हें शास्त्र ज्ञान भी था ही । अतः उन्होंने लखमशी को सिद्धान्त ग्रन्थ पढने की जिज्ञासा को सन्तुष्ट किया हो-यह अनुमान किया जा सकता है। फिर उन दोनो ने मिलकर अपने विचरो का प्रचार उस युग के यति वर्ग मे प्रथम किया होगा । क्योकि उन दोनो का सम्बन्ध यति वर्ग से था ही।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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