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महावीर और बुद्ध पूर्व-भवो मे
यह गौरवपूर्ण भविष्यवाणियाँ उसके सामने कही। मरीचि तापस इस हर्ष-सवाद को सुनकर नाच उठा। उसके मन मे अपने कुल का अह जागा । वह जोर-जोर से कहने लगा-"मेरे पितामह आदि तीर्थकर, मेरे पिता आदि चक्रवर्ती और मै स्वय इस अवसर्पिणी कालाध मे ही वासुदेव, चक्रवर्ती और अन्तिम तीर्थंकर वनूंगा । अहो, मेरा कुल । अहो मेरा कुल ।" इस अह अभिव्यक्ति से मरीचि ने अशुभ गोत्रकर्म उपार्जित किया, जिमके फलानुसार ही भगवान महावीर तीर्थंकर होते हुए भी, पहले देवानन्द ब्राह्मणी के उदर मे आए। भगवान् महावीर के कुल सत्ताईस भवो का वर्णन आता है, जिनमे दो भव मरीचि-भव से पूर्व के है, शेप बाद के । सत्ताईस भवो मे प्रथम भव नयसार कर्मकर का था । इसमे उसने किसी तपस्वी मुनि को आहार का दान दिया और प्रथम वार सम्यग्-दर्शन उपार्जित किया । भगवान् महावीर के जीव ने इन सत्ताईस भवो मे जहाँ चक्रवर्ती और वासुदेवत्व पाया, वहाँ सप्तम नरक तक का दुःख भोग भी भोगा । अपने पच्चीसवे भव मे तीर्थकरत्व-प्राप्ति के वीस निमित्तो की आराधना करते हुए तीर्थकर गोत्र बांधा। तदनन्तर अपने छब्बीसवें भव मे "प्राणत" नामक दशम स्वर्ग मे २० सागरोपम काल तक वे रहे और सत्ताईसवें भव मे उन्होने भगवान महावीर के रूप में जन्म लिया।' सुमेध तापस
___अनेक कल्प व्यतीत हो गए कि शाक्यमुनि अर्थात् बुद्ध अमरावती नगरी मे, एक ब्राह्मण-कुल मे उत्पन्न हुए थे। उनका नाम सुमेध था । बाल्यकाल मे ही उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। सुमेध को वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसने तापस-प्रव्रज्या ली । एक दिन उसने विचार किया, कि पुनर्भव दुख है, मै उस मार्ग का अन्वेषण करता हूँ, जिस पर चलने से भव से मुक्ति मिलती है। ऐसा मार्ग अवश्य है । जिस प्रकार लोक मे दुख का प्रतिपक्ष सुख है, उसी प्रकार भव का भी प्रतिपक्ष विभव होना चाहिए। जिस प्रकार उष्ण का उपशम शीत है, उसी प्रकार रागादि दोष का उपशम निर्वाण है । ऐसा विचार कर सुमेध तापस हिमालय मे पर्ण कुटी बनाकर रहने लगा । उस समय लोकनायक दीपकर बुद्ध ससार मे धर्मोपदेश करते थे। एक दिन सुमेध तापस आश्रम से निकलकर आकाश मार्ग से जा रहे थे। देखा कि लोग नगर को अलंकृत कर रहे है, भूमि को समतल कर रहे है, उस पर बालू का आकीर्ण कर लाज और पुष्प विकीर्ण कर रहे है, नाना रगो के वस्त्रो की ध्वजा-पताका का उत्सर्ग कर रहे है और कदली तथा पूर्ण घट की पक्ति प्रतिष्ठित कर रहे है । यह देख कर सुमेध आकाश से उतरे और उन्होंने लोगो से पूछा, कि किस लिए मार्ग-गोधन हो रहा है । सुमेध को प्रीति उत्पन्न हुई और बुद्ध-बुद्ध कहकर वे बडे प्रसन्न हुए । सुमेध भी मार्ग-शोधन करने लगे। इतने मे दीपकर बुद्ध आ गए। भेरी वजने लगी । मनुष्य और देवता साधु-साधु कहने लगे । आकाश मे मदार पुप्पो की वर्षा होने लगी । सुमेध अपनी जटा खोलकर, वल्कल चोर और चर्म विछाकर, भूमि पर लेट गए और यह विचार किया, कि दीपकर मेरे शरीर को अपने चरण-कमल से स्पर्श करे, तो मेरा हित हो। लेटे-लेटे उन्होने दीपकर की बुद्ध-श्री को देखा और चिन्ता करने लगे, कि सर्व क्लेश का नाश कर निर्वाण-प्राप्ति से मेरा उपकार न होगा। मुझको यह
'कल्पसूत्र, बालावबोष पृ० ३६-४६
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