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________________ पूर्व इतिवृत्त देववाचक कहते है। नन्दीचूणि मे उनके गुरु का नाम दुष्यगणी बताया है, जब कि कल्पसूत्र-स्थविरावली के अनुसार वे कुमार धर्म गणी के पश्चात् पट्टधर है। जैन परम्परा के इतिहास मे श्री दर्शनविजय जी देवर्षिगणि जी के गुरू का नाम आचार्य लौहित्य सूरि बताते है, जिनका उल्लेख नन्दीसूत्र पट्टावली मे आता है। श्री दर्शनविजय जी के उल्लेखानुसार उपकेशगच्छीय आ० देवगुप्त के पास देवधिगणी ने एक पूर्व अर्थ सहित और दूसरा पूर्व मूलमात्र अध्ययन कर क्षमाश्रमण का महत्त्व पूर्ण पद प्राप्त किया । वलभी (सौराष्ट्र) मे वीर स० ६८० के आसपास एक बृहत्मुनि सम्मेलन का आयोजन हुआ और उस मे आचार्य देवर्षिगणि के नेतृत्व मे सर्व-सम्मत पाचवी आगम वाचना सपन्न हुई। प्रस्तुत आगम वाचना मे चतुर्थ कालकाचार्य विद्यमान थे, जो नागार्जुन की चतुर्थ वलभी वाचना के प्रखर अभ्यासी थे और जिन्होंने वीर स०६६३ आनन्दपुर मे वलभी वशीय राजा ध्रुवसेन की उपस्थिति मे श्रीसघ के समक्ष कल्पसूत्र का वाचन किया था। आगमो के पुस्तकारूढ का यह महाप्रयास, जैन इतिहास का वह सुनहला पृष्ठ है, जो निर्दलिताज्ञान-सभारप्रसार देवधि वाचक के गम्भीर आगम ज्ञान, तटस्थ चिन्तन एव लोक-प्रिय निर्मल यश की चमत्कारपूर्ण गाथा का दिव्य प्रकाश युगयुगान्तर तक विकीर्ण करता रहेगा । आज जो कुछ भी न ससार के पास महाश्रमण महावीर का वचनामृत आगमरूप मे सुरक्षित है. वह सब देवद्धिगणी की ही जिन प्रवचन-भक्ति का अमर दान है । कल्पसूत्र स्थविरावली का अन्तिम सूत्र जिन शब्दो मे, पन्द्रह सौ वर्षों से वीर स० १००० मे शत्रुजय पर दिवगत हुए महावाचक देवद्धि को वदना कर रहा है, हम भी उन्ही श्रद्धासुरभित शब्द-सुमनो से उन्हे सादर एव सभक्ति स्मरणाजलि अपर्ण करते है सुत्तत्थरयण-भरिए, खमदम-मदवगुणेहिं सपन्ने । देवढि-खमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि ॥ भगवान् ऋषभदेव और भगवान महावीर से लेकर आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण पर्यन्त, अखण्ड प्रवाह से समागत श्रमण-परपरा के इतिवृत्त का यह सक्षिप्त-सा रेखा चित्र प्रस्तुत किया है। यह इतिहास नही, उसकी एक हल्की सी झलक है । प्रस्तुत रेखाकन मे कल्पसूत्र स्थविरावली, आचार्य हेमचन्द्र कृत परिशिष्ट पर्व, प्रभावक चरित्र पट्टटावली समुच्चय और श्री दर्शनविजय जी सम्पादित जैन-परम्परा नो इतिहास आदि ग्रन्थो से प्राप्त विचार सामग्री का उपयोग किया है। उक्त ग्रथो मे काफी मतभेद है, कुछ स्थलो पर तो ये सब परस्पर इतने अधिक टकरा जाते है कि एक मार्ग निश्चित करना बहुत ही कठिन हो जाता है। फिर भी "यावद् बुद्धि-बलोदय" कुछ जोडतोड लगाया गया है । सभव है इस जोड तोड मे कही कुछ विपर्यय हुआ हो । यह विपर्यय इतिहास के गम्भीर अभ्यासियो से समाधान की अपेक्षा रखता है । आशा है, यथावकाश इतिहास के मान्य विद्वान इस पर कुछ स्पष्ट प्रकाश डालने की दिशा मे उचित प्रयत्ल करेंगे।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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