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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
आर्य धर्म के प्रमुख शिष्यो मे आर्य स्कन्दिल और आर्य जम्बू का उल्लेख मिलता है । आर्य स्कन्दिल युग प्रधान आचार्य है। आप मथुरा के निवासी थे, मूल नाम सोमरथ था, आर्यसिंह के उपदेश से वैराग्य हुआ और आर्य धर्म से दीक्षा ग्रहण की । ब्रह्म द्वीपिका शाखा के वाचनाचार्य आर्यसिंह सूरी के पास आगम और पूर्वो का अध्ययनकर वाचक पद प्राप्त किया। युग-प्रधान यत्र के आधार पर आपका वाचनाचार्यकाल वीर स०८२६ माना गया है । आपके समय भारतवर्ष विचित्र स्थिति मे गुजर रहा था। जन बौद्ध और वैदिक धर्मों के सघर्प ने विकट रूप धारण कर लिया था। खास कर सौराष्ट्र मे । भारत मे हूणो और गुप्तो का भयकर युद्ध हुआ और द्वादशवर्षी दुष्काल भी पड़ा । फलस्वरूप श्रुतधरो की संख्या काफी क्षीण हो गई थी, आगम साहित्य विनाश के कगार पर पहुंच चुका था। इस विकट स्थिति मे वीर स०८३० से ०४०के आसपास आर्य स्कन्दिल ने उत्तरापथ के मुनियो का मथुरा में विराट् सम्मेलन कर आगमो का पुस्तक रूप में लेखन किया । उधर आचार्य नागार्जुन ने दक्षिणा पथ के मुनियो का सम्मेलन कर वल्लभी (सौराष्ट्र) मे आगमो का सकलन एव लेखन किया । दूरस्थ होने से कुछ पाठ भेद हो गए, जिनका समन्वय आगे चलकर देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के द्वारा हुआ। कुछ पाठ भेदो का समन्वय न हो सका, तो स्कदिलाचार्य के पाठ को मान्यता देकर नागार्जुन के पाठो का मूल मागम मे ही पाठान्तर रूप से उल्लेख कर दिया, जिनके सम्बन्ध मे टीकाकार "नागार्जुनीयास्तु पठन्ति" लिखकर स्पष्टीकरण करते है। यह चतुर्थ आगम वाचना है।
३९ मार्य जम्बू
गौतम गोत्र ४० आर्य नन्दी
काश्यप गोत्र ४१ आर्य देशी गणी क्षमाश्रमण माठर गोत्र ४२ आयं स्थिरगुप्त क्षमाश्रमण वत्स गोत्र ४३ आर्य कुमारधर्म गणी
४४ आर्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण काश्यप गोत्र के क्षत्रिय कुमार थे । आपकी जन्मभूमि वेरावल (सौराष्ट्र) है । आपके पिता का नाम कामधि और माता का नाम कलावती है। कितने ही कथाकार इनको भगवान् महावीर कालीन सौधर्मेन्द्र के सेनापति हरिणगोपी देव का अवतार मानते है । आर्य देवर्षि गणी अपने युग के समर्थ आचार्य थे । आयं स्कन्दिल की वाचक परपरा के अन्तिम वाचनाचार्य और भारत के अन्तिम पूर्वधर । आपके पश्चात् अन्य कोई पूर्वधर नही हुआ।' आपका दूसरा नाम देववाचक भी सुप्रसिद्ध है । नन्दीसूत्र आपके द्वारा ही सकलित एव निर्मित है । आचार्य देवेन्द्र सूरि कर्मग्रन्थ, स्वोपज्ञवृत्ति मे नन्दीसूत्र रचयिता के रूप मे आपको देवर्षि क्षमाश्रमण और देवधि वाचक के नाम से स्मरण करते हैं। आचार्य हरिभद्र और मलयगिरि अपनी नन्दी टीका में और जिनदासगणी महत्तर नन्दी-सूत्र चूणि मे उन्हे
'जबुद्दीवे ण दीवे भारहे वासे इमोसे ओसप्पिणीए मम एग वाससहस्स पुन्वगए अणुसज्जिस्सइ ।
-भगवती सूत्र २०, ६,६७७
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