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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-अन्य
उपाय लघन माना जाता था । यदि रोग कठिन होता, तो पत्र कर्म का आश्रय लिया जाता। इसके बाद आवश्यकतानुमार सरल, निर्दोप और हितकारी औषधियो का मत्र सहित मेवन कराया जाता था। जरा और कुष्ठ जैसे महाभयानक और अमाध्य रोगो के लिए मस्कार-युक्त पारे का प्रयोग किया जाता था। प्राचीन काल में औपधि-विज्ञान, कल्प-विज्ञान, ग्मायन-विज्ञान और रम-विज्ञानादि का समुचित विकाम हो चुका था। सिद्ध योग अथवा पेटेन्ट ओपधिया भी बनती थी। जिनके योग में गंग को स्थायी स्पसे उखाड फैका जाता था । धनी कोमल प्रकृति वालो को तुरन्त लाभ पहुंचाने के लिए रसीपधियो का प्रयोग किया जाता था।
छठा अग मिट्टियाँ है। आयुर्वेद ने चिकित्सा के क्षेत्र में जो सिद्धियां प्राप्त की, उनका पूरा विवरण एक पुस्तक लिखकर ही किया जा सकता है। आयुर्वेद की महान् विभूतियो मे अम्विनीकुमार, धन्वतरि और मुश्रुत मे मिद्ध-हम्त गल्य-चिकित्मक हो चुके हैं, जो अर्थ को नये नेत्र दे मकने थे, मस्तिष्क की शल्य-चिकित्सा कर सकते थे, कटे हुए पैरों के ग्यान पर नए पर जोट मक्त थे और बूढे को जवान बना सकते थे। रावण जैसे बाल-रोग विशेपन और उदयनविद्या के पारगत आयुर्वेद में हो चुके है। नित्यनाथ, नागार्जुन, पूज्यपाद, घुडिनाथ, लल्ल, नारायण जैसे गुटिका, पादुका-सिद्ध आयुर्वेद की महान् विभूतिया है। चरक, वाग्भट्ट, आगिरस भारद्वाज और जीवक जमे विगेपनी पर आयुर्वेद को गर्व है। मुर्दे को जिलाने
और गलित कुप्ठ के गले अगो को फिर से उगाने में महाराज मोमदेव जैसे रम-सिद्धो ने अपने चमत्कार प्रकट किए थे। गर्भ में लिंग-परिवतन आयुर्वेद में मग्ल माना जाता था।
चिकित्सा का मातवा अग परिचर्या है। रोगियों को मेवा शुश्रूषा के लिए आतुरालय होते थे। ये आतुरालय राजवैद्यो की देख-रेख में चलने थे। किन्तु उन आनुरालयों का अत्यधिक विस्तार नहीं था। क्योंकि अत्यधिक औपधि का प्रयोग जिस प्रकार प्राचीन आचार्य वज्यं ममभने थे, उसी प्रकार अन्यधिक परिचर्याचिन्ता को भी अनावश्यक मानते थे । कोई भी विद्वान जब अपनी चरम-सीमा पर पहुंच जाता है, तब उसमे मरल विधिया प्रकट होती है । इस दया के बाद क्या दिया जाए और इससे बाद क्या और इसके बाद क्यो ? यह भी एक प्रकार की चक्कर वाजी है। आयुर्वेद ने उस चक्कर वाजी से बचने के लिए परिचर्या की एक मरल विधि खोज डाली । इस विधि का नाम है अनुपान । अनुपान से एक ही औपधि अनेक रोगो और अनेक अवस्थाओं पर विजय पा सकती है। इसीलिए अनुपान-विद्या आयुर्वेद मे एक अलग भाखा की तरह विकसित हुई थी।
खेद है कि आयुर्वेद का आज ह्राम हो रहा है। नवीनता की धुन मे हम प्राचीन विज्ञान को भूलते जा रहे है । आयुर्वेद की हजारो पुस्तके अब भारत से बाहर जा चुकी हैं और वे अव दुप्प्राप्य हो चुकी हैं। श्री म० पदे जी ने विदेशो मे गई इस प्रकार की एक हजार पुस्तको की एक सूची तैयार की थी। श्री रामदास गौड ने भी अपनी पुस्तक "हिन्दूत्व" में आयुर्वेद के अनेक अलभ्य ग्रन्थो की सूची दी है । भरद्वाज के "विमान-गास्त्र" मे भी इसी प्रकार की सूची है। मेरे सामने भी अनेक खोऐ हुए ग्रन्थो के प्रसग आए है। कुछ दिन पहिले एक मित्र ने मुझे सूचित किया था, कि गाव की एक गली मे "सौरभ्य-सूत्र"
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