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प्राचीन आयुर्वेद कला
विष, कीटाणु, असतुलन, दोष आदि । प्रश्न यह उठता है, कि आधुनिक विज्ञान जैसे यन्त्रो की सहायता से रोगो का निश्चय करता है, इसी प्रकार रोग निश्चय का प्राचीनो का क्या उपाय था? प्राचीन काल मे सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए जो उपाय बताए गए है, उनमे योग एक है। योगी को बाहर भीतर की सभी वस्तुएँ प्रत्यक्ष दिखाई देती है । इसी अन्तर्बोध से सभी रोगो का सूक्ष्म परिचय प्राचीनो को हुआ था। ससार के सभी विषयो का क्रमबद्ध ज्ञान वेद से पहिले विकसित हुआ था। इसलिए प्राचीन वैद्य ज्योतिप को सहायता से रोग का सम्पूर्ण रूप सही-सही समझ लेते थे। कहा भी है "लग्नवशेन रोगमाह चक्रपाणि.।" अर्थात् चक्रपाणि वैद्य ने बतलाया है, कि सभी रोग लग्न के अधीन है। प्राचीन काल मे सामुद्रिक शास्त्र का समुचित विकास हुआ था। इसलिए भारतीय पुराणो मे लिखा है, कि गुल्फ, नितम्ब पदादि चौदह अगो के शुभाशुभ लक्षण जो भलीभाँति जानता है, उसे वेद की चौदह विद्याओ का रहस्य ज्ञात हुआ समझो। यह लक्षण विज्ञान रोग-निदान का अचूक साधन था । आजकल होमियोपेथी मे लक्षण-विज्ञान को समुचित महत्व दिया जाता है । पर खेद है, कि वह अभी उसे अचूक और व्यवस्थित नहीं बना सका। नाडी-विज्ञान भी प्राचीन काल मे बहुत विकसित हुआ था। नाडी छूकर अथवा हाथ के धागा बाधकर केवल कम्पनो के आधार पर रोग का सही पता देने वाले कोई-कोई वैद अव भी मिलते है । रोगो का पता लगाने के लिए अध्यात्म-विद्या का प्रयोग भी प्राचीन काल में किया जाता था। इस विद्या से सूक्ष्म भावो और विचारो का स्थूलीकरण और पाभिवीकरण कर लिया जाता था। मध्यभारत में अब भी ऐसे एक महात्मा है, जो कासे की थाली और देशी कागज को शरीर पर रखकर अन्दर का चित्र उतार लेते है । यह चित्र वर्तमान काल के सभी X-Ray यन्त्रो से अधिक स्पष्ट होता है।
चिकित्सा का चौथा अग शरीर-विज्ञान है । यद्यपि वर्तमान काल के वैज्ञानिको की यह मान्यता सही है, कि उन्होने यत्रो की सहायता से और शल्य-क्रिया से शरीर रचना का जैसा गहरा ज्ञान प्राप्त किया है, वैसा प्राचीनो को हो ही नहीं सकता था। क्योकि शरीर के स्थूल रूप को हमारे प्राचीन ऋषि बहुत महत्व नहीं देते थे । वे स्थूल का कारण सूक्ष्म को मानते थे और सूक्ष्म शरीर का अध्ययन जैसा प्राचीनो ने किया, वैसा आज तक नहीं हो सका है। छप्पन कोठे और बहत्तर हजार नाडियो का विवरण "आर्ष-शरीर-विज्ञान" मे मिलता है । १०८ मर्म, सौषुम्ण जाल, त्रिकूट, छ योगिनी और सात-धारणाएं आर्ष-शरीर-विज्ञान" के सूक्ष्म रहस्य है । "जिनमे वर्तमान विज्ञान की कोई गति नहीं है और आधुनिक वैद्य भी आधुनिकता के बहाव मे बह कर इन्हे भूल बैठे है। "देवता-प्रकरण" मे उन्होने अस्थि-विज्ञान को स्पष्ट किया था तथा उन्हे गर्भ-विज्ञान का भी समुचित ज्ञान था। ८४ प्रकार के वायु जन्य रोग, ४० प्रकार के पितज और २० प्रकार के कफज रोगो को तथा एकादश प्राणो की शरीर-सस्था को वे अच्छी तरह समझते थे । भाषा मे अन्तर हो सकता है । आज लकवे का कारण मस्तिष्क की कोपाओ का सूखना माना जाता है। पहिले यह वायु जन्य रोग माना जाता था। क्योकि उनकी राय मे वायु ही इन कोपाओ को सुखाती है।
पाचवा अग चिकित्सा है। अत्यधिक औषधि प्रयोग प्राचीन काल मे अनुचित समझा जाता था। प्राकृतिक आहार-विहार स्वास्थ्य के लिए आवश्यक समझा जाता था । यदि कुछ गडबडी होती, तो पहला
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