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गुरुदेव श्री रत्ल मुनि स्मृति-ग्रन्य
आयुर्वेदिक औषधियो के चमत्कारो की कल्पना भी हम कैसे कर सकते है | आज हमारे दंग को जडियों के जीवक की आवश्यकता है। आज यदि सुपेण और धन्वतरि पैदा हो, तो सजीवनी, रसायनी, सावण्यंकर्णी और विशल्यकर्णी औषधियो की हमारे देश में कोई कमी नहीं है।
चिकित्सा का दूसरा अग औपध-निर्माण है। आज के विगेपनता के युग मे जो औपधि-जाता है, वह कभी औपध निर्माता नही हो सकता। किन्तु ज्ञान-समन्वय सरलता और मस्तपन की दृष्टि से आयुर्वेद मे यही उचित माना गया था, कि जिसको द्रव्यमान हो वही दवा भी तैयार करे । आजकल वडीवडी फार्मेसी और वडे-बडे यत्र दवा बनाते हैं। आज की आयुर्वेद की रसायन-शालाएं उनके मामने वडी फीकी लगती है। फिर आजकल वैज्ञानिक बडी मफाई में दवा बनाते हैं, और वे दवा का मार Actic Principle निकालना जानते है । लोग कहते है, कि प्राचीनकाल में यह महान ज्ञान आयुर्वेदनो को था ही नहीं। इसलिए आयुर्वेद आधुनिक चिकित्सा का मुकाबला ही कैसे कर मकता है ? किन्तु "अगनकल्प" और "पाक-सर्वस्व" के उद्धरणो को यदि हम भरद्वाज-कृत बृहद् विमान-गाम्ब मे पढे, तो स्पष्ट हो जाएगा कि 'प्राचीनकाल में भी यत्र होते थे और उनसे औषधियों से सत्व निकाला जाता था और गोली,चर्ण-चटनी सब बनाए जाते थे। भिन्न-भिन्न प्रकार की अग्नियो और भिन्न-भिन्न प्रकार के पाको का ज्ञान भी उनको था। इस शास्त्र में उनकी औपधि-निर्माण-कला पराकाष्ठा पर पहुंची हुई थी । यय-बल मे उडन-शील घातुओ को स्थर्य प्रदान करना आयुर्वेद की अद्वितीय सिद्धि है । व्याडि और नदि जैसे सर्वज्ञ भपज्य शिल्पी (Pharmaceutical Engineers) प्राचीन काल में हो चुके है, जिन्होंने सीमानलया और गर्भ-यन्त्र जैसे अद्भुत यो का निर्माण किया था। ये दोनो यत्र स्वतः सचारित निर्वात यन्त्र है अर्थात् Automatic taccum है । वात का नितान्त अभाव होने पर दीपक जल ही नहीं सकता। किन्तु गीता में लिखा है "यया दीपो निवातस्यो नेङ्गते सोपमा स्मृता" यह अमर-दीप आयुर्वेद के महर्षि प्राचीन काल में यत्र-कोगल से जला चुके हैं । मैंने अनेको आधुनिक एजिनियरो से उक्त यन्यो की विधि के बारे में पूछा है, किन्तु अब तक कोई भी सरल और सफल विधि नही बता सका।
चिकित्सा का तीसरा अग निदान है । रोग की पहिचान ही नही, तो इलाज हो ही नहीं सकता। प्रश्न उठता है, कि रोग का कारण क्या है ? आयुर्वेद के अनुसार व्याधि कर्मज भी होती है, स्वाभाविक भी और औपसर्गिक भी। ऐलोपेथी स्वाभाविक रोगो के अतिरिक्त कीटाणु जन्य रोग प्रमुख मानते हैं। आयुर्वेद के औपसर्गिक रोग उससे मिलते हैं। अथर्ववेद में कीटाणुओ का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। फिर भी यह मानना होगा, कि आधुनिक चिकित्सा का कीटाणु ज्ञान अधिक विस्तृत और व्यवस्थित है। प्राकृतिक चिकित्सा और होमियोपेथी रोग का कारण विप मानते है। आयुर्वेद त्रि-दोप सिद्धान्त को मानता है। कुछ आधुनिक आयुर्वेदज्ञ विज्ञान के जीवाणु-सिद्धान्त को सही और आयुर्वेद के एकात्मवाद तया त्रि-दोप सिद्धान्त को गलत बताते है । मेरी समझ मे इन दोनो मे कोई विरोध नहीं है । आत्मा को व्यापक-तत्व तथा दोपो को सूक्ष्म प्रेरक कारण के रूप मे न समझ सकने के कारण ही विद्वानो ने आयुर्वेद-पद्धति का विरोध किया है । वस्तुत आयुर्वेद का साहित्य बहुत विशाल है और रोग के कारण भी अनेक माने गए है। यथा प्रारब्ध कर्म, क्षेत्र, मन,
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