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प्राचीन आयुर्वेद-कला
और उसकी तुलना मे पाश्चात्य सभ्यता बहुत ऊ ची है। क्योकि किसी को बेहोश करने के लिए सम्मोहन क्रिया का प्रयोग सबसे पहिले शायद भारतवर्ष मे ही किया गया था। ऋग्वेद मे भी शल्य चिकित्सा का वर्णन है और सम्मोहन कला का भी । खिलाते ही बेहोश करने वाली या खून मे पहुचते ही शून्यकारी शरपुखा जैसी जडियो का ज्ञान भी भारतीयो को था। वेदो की ऋचाओ से तो यह सिद्ध होता है कि अश्विनीकुमार प्लाष्टिक सर्जरी भी जानते थे, जिससे उन्होने अपाला के नयी टाँगे जोड दी थी । यदि उक्त लेखक ने आधुनिक शल्य-चिकित्सा या भैषज्य विज्ञान का कोई इतिहास भी पढा हो, तो उसे यह बात याद रखनी चाहिए थी, कि स्वय पश्चिमी डाक्टरो ने आधुनिक शल्य चिकित्सा के विकास मे आयुर्वेद का ऋण स्वीकार किया है। इसी प्रकार की भ्रान्तियो का निराकरण करने के लिए प्रस्तुत सक्षिप्त लेख लिखा गया है।
चिकित्सा का प्रारम्भ विन्दु द्रव्य ज्ञान है। इस ज्ञान के अंतर्गत धातु, मूल और जीव सम्बन्धी सभी पदार्थों का यथावत् स्पप्ट और व्यवस्थित ज्ञान वैद्य को रहता था । वर्तमान काल मे आयुर्वेद के जो निघण्टु उपलब्ध है, वे अपेक्षाकृत आधुनिक हैं तथा अनेक भ्रान्तियो से पूर्ण हैं । भ्रान्तियो का मूल कारण यह था, कि भारत मे द्रव्यो के सैकडो आम्नाय रहे है । उनको एकसाथ सकलित करने के प्रयास मे भ्रान्तियो और पुनरावृत्तियो का होना अनिवार्य था । उदाहरणार्थं तेलगु भाषा मे एक प्रकार की रत्नपुनर्नवा को "रत्नपुरुपम्" कहते है, किन्तु रत्न पुनर्नवा वास्तव मे उससे बिल्कुल भिन्न जडी है। इसी से किस योग मे कौन सी रत्न- पुनर्नवा काम मे लेनी चाहिए यह जानना अत्यन्त कठिन और गुरु-गम्य विषय है । अगिरा जैसे प्राचीन वनस्पति-शास्त्रियो के ग्रन्थ आज लुप्त हो चुके है। आधुनिक पाश्चात्य वनस्पतिविज्ञान की दृष्टि से जो नामकरण किए जाते हैं, उनसे भी आयुर्वेद की जडियो का मूलरूप समझने मे
ति की ही वृद्धि होती है । आयुर्वेद की प्राचीन जडियो का सही ज्ञान प्राप्त करने का सबसे सुलभ उपाय सभी उपलब्ध निघण्टुओ का अकारादि क्रम से वर्गीकरण हो सकता है। इस दिशा मे महामहोपाध्याय भगीरथ स्वामी का सदिग्ध वनौपधि-शास्त्र आदर्श ग्रन्थ माना जा सकता है। स्वामी जी ने उक्त ग्रन्थ मे जडियो के मूलरूप समझने मे अनेक भूले की है। उनकी अत्यम्लवर्णी और पातालतुम्बी विषयक भ्रान्ति नमूने के रूप मे पेश की जा सकती हैं। फिर भी यह मानना ही होगा, कि एक जड़ी सबन्धी प्राचीन वैद्यो के विचार एकत्र करके स्वामी जी ने आयुर्वेद की बडी सेवा की है ।
दूसरी बात यह है, कि आज जो टूटा-फूटा ज्ञान तीन हजार जडियो का आयुर्वेदज्ञो को है, उसका सम्बन्ध केवल औषधि निघण्टुओ से हो है, किन्तु धातु- विपयक ज्ञान की तो और भी दुर्दशा है । आज न बोधायन का " धातु-सर्वस्व " मिलता है और न पतञ्जलि का "लोह - शास्त्र" ही सुलभ है । भूगर्भ विद्या को जानने वाले गर्ग और वेदव्यास भी आज हमारे बीच मे नही है । फिर यह कैसे सम्भव हो सकता है, कि हम आज शुडाल, रसक, हीखी और अजन जैसी सुप्रसिद्ध धातुओ का भी पता लगावे ? आयुर्वेद की शुद्ध खनिज गधक आज नितात दुर्लभ हो चुकी है। विज्ञान विकृत शुद्ध गधक ही आज हमे मिल सकती है । इससे भी बुरी हालत जीव-विज्ञान की है। आज तो आयुर्वेद जीव विज्ञान की जानकारी प्राप्त करना ही अनावश्यक समझते है । जिन द्रव्यो से दवा बनती है, उनके ज्ञान का आज यह हाल है, तो प्राचीन
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