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________________ प्राचीन आयुर्वेद-कला श्रीपतराम गोड, एम० ए०, प्रोफेसर विडला फालेज. पिलानी +-+ ++ + ++ ++ + ++ + ++ ++-+-+- +-+- --- -+-+ -+-+-- प्रस्तुत लेख का उद्देश्य प्राचीन काल में प्रचलित-आयुर्वेद-विज्ञान और कला का सक्षिप्त परिचय देना है । आयुर्वेद को देशी चिकित्सा Indigenous System कहना अपमान-जनक और अज्ञानमूलक है। क्योकि आयुर्वेद प्राचीन काल में विश्व के बहुत बडे भू-भाग मे सार्वदेशिक या सार्वजनीन चिकित्साप्रणाली रह चुकी है और अब भी उसकी भारत तथा अन्य देशों में मान्यता है। मगोलिया की सुदाई से चौथी-पांचवी शताब्दी का जो आयुर्वेद-ग्रन्थ "वावर मैन्युस्किाट' के नाम मे उपलब्ध हुआ है, वह सिद्ध करता है, कि आयुर्वेद की जडें प्राचीन काल में दूर-दूर तक फैल चुकी थी। चीन, जापान और सिंहलादि में प्रचलित सूची-वेध-प्रणाली भी आयुर्वेद की प्राचीन प्रणाली है। आजकल के भारत के विश्वविद्यालयो में जो पाठ्य पुस्तकें पढाई जाती है, उनमे प्राय प्राचीन चिकित्सा को हीनता दिखाना ही पाण्डित्य-प्रदर्शन का परिचायक माना जाता है । भारतीय नामधारी विद्वानो की लेखनी से लिखे हुए ऐसे लेख भी-कभी वडे उपहासास्पद लगते है । लेखक आधुनिक सल्फा-ड्रग्ज का वर्णन करते हुए गर्व से फूल उठते हैं, किन्तु उन्हे स्वप्न में भी यह पता नही, कि उनके पूर्वजो ने गधक, ताल और मल्ल के यौगिको का शताब्दियो पूर्व विकास कर लिया था और ससर्गज-व्याधियो पर आज तक उनका प्रयोग किया जाता है । विषो के प्रयोग पर यायुर्वेद का जैसा असाधारण अधिकार रहा है, वैसा आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का आज भी नही है । एक अन्य पाठ्य पुस्तक में आधुनिक शल्य-चिकित्यसा की सिद्धियो का वर्णन करते हुए लेखक ने लिख मारा, कि भारत मे पहले कोई अग काटना होता, तो लाठियो से पीट कर बीमार को बेहोश किया जाता था। इसके बाद उसे बांध कर करोती से उसका अग काटा जाता था। विश्वविद्यालय के छात्रो को ज्ञान वितरण करते हुए इस प्रसग मे लेखक ने अपने अद्भुत अज्ञान का परिचय दिया है। सभवत इस प्रकार के लेखो का उद्देश्य यह प्रचार करना है, कि भारतीय संस्कृति बडी हीन है ३५४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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