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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
जैन विद्वानो ने बहुत से जनेतर-प्रथो की टीकाए भी लिगी है। माहित्य क्षेत्र में उनका यह उदार दृष्टिकोण अभिनदनीय रहा है। अनेक प्रथो को टोकाए बहुत प्रसिद्धि प्राप्त है । जनतर ग्रथो पर लिने गए कुछ प्रसिद्ध जैन अथ इस प्रकार है-पाणिनि व्याकरण पर गब्दावतार न्यास, दिडनाग के न्यायप्रवेश पर वृत्ति, श्रीधर की न्याय-कदली पर टीका, नागार्जुन की योग-रत्नमाला पर वृत्ति, अक्षपाद के न्यायसूत्र पर टीका, वात्स्यायन के न्याय भाग्य पर टीका, भारद्वाज के वात्तिक पर टीका, वाचस्पति की तात्पर्य टीका पर टीका, उदयन को न्याय तात्पर्य परि शुद्धि की टीका, श्रीकठ की न्यायालकार वृत्ति को टोका । इनके अतिरिक्त मेघदूत, रघुवश, कादम्बरी, नेपथ और कुमारमभव आदि काव्यो की टीकाए भी सुप्रसिद्ध है।
जैन विद्वानो ने साहित्य क्षेत्र में कुछ ऐमे नये तथा विचित्र प्रयोग भी किए है, जो उनकी विद्वता का प्रमाण तो देते ही है, पर साथ ही अपने प्रकार के केवल वे ही कहे जा सकते है। उदाहरणार्थ मत्रहवी सदी के जैन विद्वान श्री समयसुन्दर का 'अप्टलक्षी नामक प्रथ गिनाया जा सकता है। उनमे राजा नो ददन सौख्यम्' इस एक पद के १०२२४०७ अर्थ किए गए है । अय के नामकरण में उन्होंने आठ लास से ऊपर की सख्या को शायद इसलिए छोड दिया कि भूल से कही पुनरुक्त हो गया हो, तो उसके लिए पहले से ही अवकाश छोड दिया जाए । आठ अक्षरो के आठ लाम अयं करने का सामर्थ्य असाधारण ही कहा जा सकता है । उन्होने वह अथ स. १६४६ मे अकबर सम्राट को विद्वन्मडली के समक्ष रखा था। सभी विद्वान उनकी इस विचित्र प्रतिभा से चमत्कृत हुए थे। शब्दो की अनेकार्थता के लिए यह अथ एक प्रतिमान के रूप मे कहा जा सकता है।
इसी प्रकार का एक अन्य विचित्र प्रयोग आचार्य कुमुदन्दु द्वारा अपने 'भूवलय' नामक अय में किया गया है। वह अथ अक्षरो में न होकर अड्डो में है। एक से लगाकर चौसठ तक के अको का उसमे विभिन्न अक्षरो के स्थान पर प्रयोग हुआ है । वह कोष्ठको में ही लिखा गया है। उसकी सर्वाधिक विशेषता तो यह है कि उसे यदि मीधी लाइन में पढा जाए तो एक भापा के श्लोक पढे जाते है और खडी लाइन मे पढा जाए तो दूसरी भाषा के । इसी प्रकार टेढी लाइनो मे पढे जाने पर अन्य-अन्य भापाओ के श्लोक सामने आ जाते है। वह अथ अभी कुछ वर्ष पूर्व ही प्राप्त हुआ है। अभी उसे पूर्ण रूप से पढा भी नहीं जा सका है । वह एक वृहत्काय अथ है और कहा जाता है कि अपने समय के सभी विषयो का उसमे समावेश किया गया है । उसमे उत्तर तथा दक्षिण भारत की भाषाओ ने तो स्थान पाया ही है, पर अरबी आदि अनेक अभारतीय भाषाओ का भी उसमे प्रयोग हुआ है। कहा नही जा सकता कि उसके कर्ता कितनी भापाओ के धुरधर विद्वान थे और कितने विपयो मे उनकी प्रतिभा ने चमत्कार दिखलाया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद से जब आचार्य श्री तुलसी का दिल्ली में मिलन हुआ था, तब उन्होने इस विषय मे विस्तीर्ण जानकारी देते हुए आचार्य श्री से कहा था कि यह ससार के अनेक आश्चर्यों में से एक आश्चर्य कहा जा सकता है ।
उपलब्ध जन-सस्कृत-साहित्य का स्रोत विक्रम की तीसरी सदी से प्रारभ हुआ और १८ वी सदी तक विभिन्न उतार चढावो के साथ अपने प्रबल वेग से बहता रहा । उसके पश्चात् वह ह्रासोन्मुख हो गया।
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