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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ और विद्यानन्द जैसे धुरधर विद्वानो ने भी अपने-अपने दार्शनिक मतव्यो की स्थापना के लिए तत्त्वार्थसूत्र की टीकाएँ रची। यहां तक कि अठारहवी शती मे जैन नव्य न्याय के सस्थापक उपाध्याय यशोविजय जी ने भी अपनी नयी परिभाषामे इसकी टीका की । यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि अधिकाश जैन दार्शनिक साहित्य का विकास तत्वार्थसूत्र को केन्द्र मे रसकर ही हुआ है। उसके पश्चात् तो जैन संस्कृत साहित्य का एक स्रोत ही उमउ पटा । प्रत्येक विषय के आकर-प्रथो की मानो होड-सी लग गई । उन सवका परिचय देना तो एक बडा-सा अथ बना डालने जैसा कार्य है। यहाँ उनमे से कुछ को केवल सूचनामात्र ही की जा सकती है। जब भारतीय दर्शनो मे नवजागरण हुआ, तव गभी ओर से पडन-मडन की प्रवृत्ति बढी । युक्तियां का आदान-प्रदान हुआ । इस संघर्ष मे पडकर दार्शनिक प्रवाह बहुत पुष्ट हुआ। जनो को भी अपने विचारो की सुरक्षा के लिए दर्शन-प्रथ लिसने को तैयारी करनी आवश्यक हो गई । उन्होंने अपनी कलम को दर्शनशास्त्र की ओर मोडा । बहुत शीघ्र ही अन्य दार्गनिक ग्रथो मे टक्कर लेने योग्य ग्रयो का निर्माण हुआ । इस क्रम में पहल करने वाले थे, प्रचड तार्किक श्री सिद्धसेन दिवाकर । आगमो मे विकोणं अनेकान्त के वीजो को पल्लवित करने तथा जैन-न्याय की परिभाषाओ को व्यवस्थित करने का प्रथम प्रयास उनके प्रथ 'न्यायावतार' में ही मिलता है। उन्होंने जो वत्तीस द्वानिशिकाए रची थी, उनमे भी उनकी प्रखर तार्किक प्रतिभा का चमत्कार देखने को मिलता है । ममतभद्र भी उमी कोटि के दार्शनिक गिने जाते है । उनका समय कुछ इतिहासकर चतुर्थ शताब्दी और कुछ सप्तम शताब्दी बतलाते है ।' उनकी रचनाए देवागम-स्तोत्र, युक्त्यनुशामन, स्वयभूस्तोत्र आदि है। उनके पश्चात-अकलक विद्यानन्द, हरिभद्र, जिनसेन सिद्धपि, हेमचन्द्र, देवसूरि, यशोविजय आदि अनेकानेक दार्शनिको ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अथ लिसे । दार्शनिक प्रयो मे न्यायावतार, युक्त्यनुशासन, अप्तमीमामा, लघीयस्त्रय, अनेकान्त-जयपताका, पड्दर्शन समुच्चय, आप्तपरीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, परीक्षामुख, वादमहार्णव, प्रमेयकमल-मार्तण्ड, न्यायकुमुदचद्र, स्याद्वादोपनिपद, प्रमाणनयतत्त्वालोक, स्याद्वादरलाकर, रत्नाकरावतारिका, प्रमाण-मीमासा, व्यतिरेक द्वानिशिका, स्याद्वाद-मजरी, जन-तर्क-भाषा आदि के नाम प्रमुख स्प से गिनाए जा सकते है। प्राकृत भापा के आगम ग्रयो पर सस्कृत टीकाए लिखने का क्रम प्रारभ करने वालो मे हरिभद्र का नाम सर्व प्रयम आता है । उनका समय आठवी शती है । उन्होने आवश्यक,दशवकालिक,नदी, अनुयोगद्वार जबूद्वीप प्रज्ञप्ति और जीवाभिगम पर विशद टीकाएं लिसी है । शीलाकाचार्य ने आचाराग और सूत्रकृताग इन दो अगसूत्रो पर तथा अभयदेव ने शेप नव अग सूत्रो पर टीकाए लिखी । मलधारी हेमचन्द्र ने अनुयोद्वार पर और मलयगिरि ने नदी, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, बृहत्कल्प, व्यवहार, राजप्रश्नीय, चन्द्रप्रज्ञप्ति, और आवश्यक पर टीकाए लिखी । इनके अतिरिक्त दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगमो पर और भी अनेक विद्वानो ने टीकाए तथा वृत्तिया लिखी है। 'रत्नकरड श्रावकाचार प्रस्तावना पृष्ठ १५७ ३५०
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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