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________________ संस्कृत-भाषा का जैन-साहित्य साहित्य-विभाग परामर्शक मुनि श्री बुद्धमल्लजी +++++-+-+-+-+-+-++-+-+-++++ +++++++++++++ जैन-साहित्यकारो ने धर्म प्रचारार्थ जनभापा को महत्त्व दिया था, परन्तु कालान्तर मे उन्होने विचार प्रसार के क्षेत्र मे संस्कृत को भी उतना ही महत्त्व दिया । अन्य मतावलबी दार्शनिको के मतव्यो को समझने तथा उनका खडन कर अपने मतव्यो को स्थापित करने के लिए जैन साहित्यकारो ने इस क्षेत्र मे पदन्यास किया और शीघ्र ही प्राकृत-भापा के सामन संस्कृत पर भी अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया। परपरा से यह एक अनुश्रुति चली आ रही है कि जैनागम-द्वादशागी के अगभूत चौदह पूर्व सस्कृत भाषा मे ही रचे गए थे। उनके रचनाकाल के विषय मे दो विचारधाराएं है-एक विचारधारा के अनुसार भगवान् महावीर के पूर्व से जो ज्ञान चला आ रहा था, उसी को उत्तरवर्ती साहित्य रचना के समय 'पूर्व' कहा गया। दूसरी विचारधारा के अनुसार द्वादशागी से पूर्व ये चौदह शास्त्र रचे गए थे। इसलिए इन्हे पूर्व कहा गया। साधारण बुद्धि वाले इन्हे पढ नहीं सकते थे। उनके लिए द्वादशागी रचना की गई । वर्तमान मे पूर्वज्ञान विच्छिन्न हो चुका है । अत कहा नहीं जा सकता कि उनमे प्रयुक्त संस्कृत-भाषा वैदिक संस्कृत (प्राचीन संस्कृत) थी या लौकिक संस्कृत (वर्तमान में प्रचलित अर्वाचीन संस्कृत)। वर्तमान मे उपलब्ध जैन सस्कृत-साहित्य मे आचार्य उमास्वाति का तत्वार्थ-सूत्र प्रथम अथ माना जाता है । इसे मोक्ष-शास्त्र भी कहा जाता है । जैन दर्शन का परिचय पाने के लिए आज भी यह प्रथ प्रमुख रूप से व्यवहृत होता है । उमास्वाति का समय तीसरी शताब्दी माना जाता है । उनका यह प्रथ इतना मान्य हुआ कि विविध समयो मे इसकी बीसियो टीकाएँ लिखी गई । सिद्धसेन, हरिभद्र, अकलक
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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