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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ ५ कथाकाव्य में वक्ता-श्रोता के रूप में का प्रारम्भ होती है नया मुनने वाला-बीच-चीत्र में जिनामा या कुतूहल प्रकट करना है अथवा कवि हो यह कह कर कि अब कथा तिलकद्वीप में चलती है पा अब गजपुर का हाल मुनो, श्रोताओं का समाधान करता चलता है। ___६ कयाकाव्य में नाटकीय मन्धियों का प्रण निर्वाह नहीं देखा जाता, किन्तु चरितकाव्य में मिलता है। - मस्कृत-माहित्य के ममालोचकों के अनुसार चन्निराव्य नालाया होन है, जिनमें नायक के ममूत्र जीवन का विस्तृत विवरण एब वणन होता है। चिन्तु कथावाव्य में उद्देश्य मूलक घटनाओं का समावंग रहता है तथा उत्तर पूती जीवन का वर्णन नहीं के बराबर होता है। ८ मस्कृत में कथाएँ गद्य में लिखी जाती रही है । परन्तु अपभ्रग में वही कथा-प्रबन्ध की शैली में पद्य में लिखी मिलती है, जिनमें काव्य-मटियो का ममाहार रहता है । इसलिए रिमी रचना के पीछे चरित या कया गन्द जुदा होने से वह चरिन या कथामाव्य नहीं माना जा मफ्ना । गम्कृत में भी दशकुमारचरित प्रसिद्ध कथाकाव्य है, जिसका भेद पाट ही कई बानो में "हपंचरित" में देखा जा सकता है। ६ स्पकगत चरित-रचना की पृथक् अभिया "प्रकरण का उल्लंग हम भरनमुनि 'नाट्यशास्त्र" में मिलता है। इसलिए हम यह कह कर कि चरित लांस में दया जाना है काव्य में तो नया ही मुग्य चेतना होती है, हम कथा काव्य के अन्तर्गत चरितराधना गमावेश नहीं कर माने । वस्तुत दोना पथक विधाएं है। १० सम्यन के अधिकाग चरितकाच्य ऐनिहामिव व्यक्ति को ले कर लिग गए है । वस्तुत भारतीय माहित्य में कथा और चरित दोनो ही भिन्न है। दोनों के उद्देश्य और अभिप्रायों में भी अन्तर है। कथा-प्रकार विषय की दृष्टि से अपनग के कयाकाव्य तीन प्रकार के मिलन है-प्रेमाग्यानक, व्रतमाहात्म्य प्रदर्शक तथा उपदेशात्मक । विलामवती और जिनदत्तकया प्रेमारयानक कथाकाव्य है, जिनमें नायकनायिकाओ के प्रेम-व्यापार का मयुर वणन है। अपभ्रग के प्रेमाम्यानक काव्या में विवाह के पूर्व ही मूर्तिदर्शन या प्रत्यक्ष दर्शन से प्रेम-भाव का उदय होना, पूर्व गग में काम को दशी दगाओ का क्रमश प्रकाशित होना, उद्यान में नायक-नायिका का माक्षात्कार होना, दूती द्वारा प्रेम-निवंदा नया प्रमोपहार भेजना आदि चात मिलती है । "पउममिरीचरिउ" में भी ये बाते मिलती है। व्रतमाहात्म्य के फल वर्णनस्वरूप भविष्यदत्त, मित्रत्रकथा वनाम श्रीपालकथा और मुदर्शनचरित वर्णित है। भ० क० में यदि श्रुतपचमी-वत का माहात्म्य प्रदणित है, तो मि० क० मे मिद्धचत्र का माहात्म्य
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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