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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-अन्य की शिक्षा ग्रहण करते थे। इसी प्रकार सुन्दर स्त्रियो के निमित्त उस युग में युद्ध लडे जाते थे । कई सुन्दरियो से विवाह करना गौरव की बात समझी जाती थी। प्रिय या पुत्र के वियोग मे राजपूत ललनाएं कोनो को सन्देश दे कर भेजती थी। बहु-विवाह की प्रथा का प्रचलन था। विवाह राजसी ठाठ-बाट से होते थे। समाज में वैश्यो का अच्छा स्थान था । राजा उनका यथोचित सम्मान-सत्कार करता था । नगरसेठ अत्यन्त प्रभावशाली होता था। उम युग मे कई छोटे-छोटे राज्य होते थे। इसलिए राजा लोग सदा शकित रहते थे। समाज मे पर्दा-प्रथा प्रचलित थी। बालको की भांति कन्याएं भी विविध कलायो की शिक्षा प्राप्त करती थी। विशेष रूप से स्त्रिया सगीत एव वीणालापन में निपुण होती थी। गेंद से खेलना उन्हे अन्यन्त प्रिय था। सभी स्त्रियां आभूपण-प्रिय होती थी। यहां तक कि तरह-तरह के आभूपणो से अग-प्रत्यग ढंक लेती थी। भारतीय समाज में विवाह एक मागलिक कार्य माना जाता रहा है। उस युग में वैश्यो के विवाह भी वेद की ऋचाओ के माथ पुगेहितो द्वाग सपन्न होते थे । वर्ण-व्यवस्था का व्यापक प्रचार था। वर-कन्या को देसे विना विवाह नहीं होते थे । अधिकतर चित्रपटो को देख कर लटका-लडकी मन भर लेते थे। धनी लोगो के यहां विवाह के समय नृत्य-गान तया कौतुक होते थे। कई दिनो तक लोग रागरग में मस्त रहते थे। मद्यपान-गोष्ठिया जमा करती थी। वर बहुत दिनो तक विवाह होते ही ससुराल में रहता था । दायजे में कन्या को दास-दामी, हाथी, घोडा, गाय, भैस तथा सेना एव मोती, माणिक, हीरा, रत्न आदि पदार्थ दिए जाते थे। बहू के साथ वेटे के लौटने पर माता उत्सव मनाती थी । वेटे. बहू की नजर उतार कर आरती उतारती थी। न्योछावर करके दान दिया जाता था । कपूर के दिए जलाए जाते थे। जीवन की अन्तिम अवस्था में राजा लोग तथा नगर के प्रमुख सन्याम धारण कर लेते थे । अपभ्रश-साहित्य में सुखोपभोग करने के पश्चात् पुरुप तथा स्त्री सभी का विरक्त हो कर मुनि-दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है । इस प्रकार समाज और मस्कृति से भरित अपभ्र श-कथाकाव्य जीवन के विकास की धार्मिक तथा नैतिक पद्धति से परिव्याप्त है, जिनमें यथार्थ और आदर्श दोनो का सुन्दर मेल हुआ है । वस्तुत भारतीय साहित्य में महाकाव्यो के अभ्युत्थान में अपभ्रश-कथाकाव्य की यह विद्या कई दृष्टियो से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । साहित्यिक वर्गीकरण अपभ्रश साहित्य में वन्ध, शैली और आकार-प्रकार की दृष्टि से कई प्रकार की साहित्यिक विधाएं लक्षित होती है। अभी तक मुख्य रूप से अपभ्रश का साहित्य पौराणिक तथा चरितमूलक समझा जाता रहा है । किन्तु आलोच्यमान प्रवन्ध काव्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रश में कयाकाव्य नामक स्वतन्त्र विद्या का विकास हो चुका था, जो सस्कृत के एकार्थक काव्य की कोटि में परिगणित की जा सकती है । सक्षेप में, अपभ्रश-साहित्य का वर्गीकरण इस प्रकार है ३३०
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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