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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
आगम साहित्याकाश के प्रकाशमान नक्षत्र आर्यरक्षित सूरी, आर्य वज्रसेन के ही समकालीन थे। आप मालव प्रदेश के दशपुर (मन्दसौर) नगर के निवासी रुद्रसोम पुरोहित के पुत्र थे। माता की प्रेरणा से दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए वही इक्षुवन मे विराजित आचार्य तोसलीपुत्र के पास पहुंचे और मुनि बन गए। आगमिक साहित्य का प्रारम्भिक अभ्यास तोसलीपुत्र से किया और पूर्व तक दृष्टिवाद का अध्ययन आर्य वज स्वामी से। आपने अनुयोग द्वारा सूत्र की रचना की और आगम साहित्य को द्रव्य, चरण-करण, गणित, धर्म-कथा-इस प्रकार चार अनुयोगो मे विभक्त किया । अद्यावधि समग्र आगम पाठो के द्रव्यादि रूप मे चार-चार व्याख्यार्थ किए जाते थे, परन्तु आर्य रक्षित ने, श्रुतधरो की मेधाशक्ति की क्षीणता को देखते हुए, जिन पाठो से जो अनुयोग स्पष्ट रूप से ध्वनित होता था, उसी एक प्रधान अर्थ को कायम रखकर अन्य अनुयोग सम्बन्धी गौण अर्थों का प्रचलन बन्द कर दिया।
यह सब कार्य द्वादशवर्षी दुप्काल के वाद दशपुर में हुआ। इतिहासकार उक्त आगम वाचना का समय वीर स० ५९२ के लगभग मानते है। इस आगम-वाचना मे वाचनाचार्य आर्य नन्दिल, गुग प्रधान आचार्य आर्य रक्षित और गणाचार्य आर्य वयसेन ने प्रमुख भाग लिया था। वर्तमान मागम साहित्य में कितनी ही उत्तर कालीन घटनाओ का भी वर्णन है । कुछ विद्वानो का इस सम्बन्ध मे यह कथन है कि आर्य रक्षित ने अपने समय तक की महत्त्वपूर्ण घटनाओ का स्मृतिहेतु आगमो मे समावेश कर दिया था।
आर्य रक्षित के दुर्बलिका पुष्यमित्र (मन्दसौरवासी), आर्य फल्गु रक्षित (आर्य रक्षित सूरि के लघुभ्राता), विन्ध्य मुनि और गोष्ठामाहिल आदि प्रमुख शासन प्रभावक शिष्य थे। दुर्बलिका पुष्यमित्र आर्य रक्षित के उत्तराधिकारी हुए । गोप्ठामाहिल भी महाज्ञानी पूर्वधर थे। इन्होने मथुरा मे एक प्रकाण्ड नास्तिक विद्वान को पराजित किया था। परन्तु आठवे कर्मप्रवाद पूर्व मे आए कर्म और आत्मा के क्षीर नीर जैसे सम्बन्ध को न मान कर, शरीर पर वस्त्र के समान कर्मबन्ध को आत्म-प्रदेशो के ऊपर लगा हुआ माना, इस कारण गोष्ठामाहिल सातवे निन्हव के रूप मे प्रख्यात हुए । इनका काल वीर स० ५८४ है । कुछ ही वर्षों वाद (वीर स० ५९७) मन्दसौर नगर मे, आर्य रक्षित स्वर्गवासी हुए। १८ आर्य रथस्वामी
आर्यवत्र स्वामी के द्वितीय पट्टधर आर्य रय है, जिनसे देवद्धिगणी क्षमा-श्रमण की परम्परा का विकास हुआ । आर्य रथ (प्राकृत नाम आयरह) वशिष्ठ गोत्री थे । आप भी वज स्वामी के प्रमुख शिष्यो मे आर्य वज्रसेन के समान ही प्रभावशाली थे । आपका दूसरा नाम आर्य जयन्त है, इनसे जयन्ती शाखा का विकास भी माना जाता है।
इनके पश्चात् कल्प-सूत्र स्थविरावली मे देवद्धिगणी पर्यन्त अनेक आचार्यों के नाम पट्टधर के रूप मे आते है, परन्तु उनका विशिष्ट परिचय नही मिलता। अत कल्प-स्थविरावली के आधार पर केवल नामोल्लेख ही किया जा रहा है
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