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विसयतकहा और अपभ्रश कथाकाव्य
डा. देवेन्द्रकुमार एम० ए० पी० एच० डी०
मध्ययुगीन भारतीय आर्य-भापाओ में अपभ्रग का अत्यन्त महत्व है। परिवर्तनो के बीच भी स्पष्ट रूप में इसका मूल म्प अत्यन्न प्राचीन लक्षित होता है। यदि अपभ्रम प्राकृतो की अन्तिम अवस्या का विकाम है, तो प्राकृन वैदिक युग की बोली का स्वाभाविक विकाम है, जिसके बीज हमे लैटिन, ग्रीक, अवेस्ता और वेदो की भाषा में विमरे हुए मिलते है । इमलिए यह स्वाभाविक ही है कि अपभ्रग और प्राकृन की कुछ विशेपनाएं आज भी वैदिक और अवैम्ना की भाषा में निहित मिलती है।
उपलब्ध प्रमाणो के आधार पर अपभ्र ग भापा आभीरो की बोली कही जाती है । किन्तु वैयाकरणो के निर्देशो से पता लगता है कि भापा में अपशब्दो की भग्ती एव विकार का नाम अपशब्द या अपभ्रश है, जो निश्चय ही भाषा के परवर्ती विकास का सूचक है । इसलिए मस्कृत-माहित्य के समालोचको के "आभीरादिगिर काव्येष्वपभ्रग इति स्मृता" कथन मे यही अभिप्राय जान पडता है कि शिष्ट लोगो की तुलना में अपभ्रश जन सामान्य एव निम्न जातियों की विभापा (बोली) है । वैयाकरण भी इसे शूद्र म्लेच्छ तथा महाशूद्र की भापा कहते है । परन्तु मेरे मत में अपभ्रा अहीर, भील, मछुआ आदि लोगो की भापा न हो कर जन साधारण की वोली रही है। यदि वह अहीरो की बोली होती तो उनके द्वारा लिखे हुए साहित्य या प्रदेश विशेप की बोली का उल्लेख अवश्य मिलता। आचार्य भरत मुनि ने तथा राजशेखर ने उकार बहुल भापा का उल्लेख किया है, यह अपभ्रण ही है । क्योकि उत्तर से ले कर दक्षिण भारत तक की कई भापाओ मे उकारान्त पद्धति लक्षित होने पर भी विशेप रूप से वह अपनश को सूचक है। भरत मुनि के समय में भाषाओ के साथ ही कई विभापा नाट्य में प्रयुक्त होती थी जिनमे आभीरी भी बोली रूप मे थी। वस्तुत आभीरी बोली मात्र ही रही है । इसमे साहित्य कभी
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