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पूज्य श्री रत्नचन्द्र जी की काव्य साधना २. और देव अरड कुण रोपै, जो गुण मन्दिर केलि फली। ३. कंचर डार कांच चित देवें, वा को बुध मे खामी । ४. बमीयो आहार बछा करे, कह कुत्ता केइ काग । ५. लच्छण स्याल, सांग परि सिंह को, खेत लोगारो खायो। ६. स्याही गई सफेदी आई
तू फूंक फूक पग पर रे।
पूज्य श्री रत्नचन्द्रजी की भाषा राजस्थानी है । उसमे गुजराती, पजाबी आदि भाषाओ के शब्द भी एकाध जगह प्रयुक्त हुए है । भाषा के क्षेत्र मे जैन कवि हमेशा उदार रहे है । लोक-भाषा में अपनी बात कहना ही उन्होने धर्म प्रचार की दृष्टि से हितकर माना है । सस्कृत के विद्वान होते हुए भी हमारे कवि ने भाषा को क्लिष्ट नहीं बनाया है । अनुप्रास-युक्त भाषा की प्रवहमानता का एक उदाहरण देखिए
अलख निरंजन मुनि मन रंजन, भय भंजन विश्रामी । शिवदायक नायक गुण-गायक, पावक है शिवगामी ॥
छन्द-विधान की दृष्टि से भी जैन कवि बडे उदार रहे है, उन्होने शास्त्रीय छन्दो की अपेक्षा लौकिक छन्दो के विविध प्रयोग बड़ी कुशलता के साथ किए है । पूज्य रत्नचन्द्रजी ने भी कुंडल, गीतिका दोहा, ढाल आदि छन्दो मे अपनी रचनाएँ लिखी है। सगीत-तत्व इनको कविता की एक विशेषता है । ये सभी रचनाएँ गेय होती है और सामायिक-प्रार्थना आदि मे सामूहिक रूप से गायी जाती है । ढालो को विभिन्न राग-रागनियो ( मल्हार प्रभाती, आदि ) मे गुंफित किया गया है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पूज्य रत्नचन्द्रजी के कवि व्यक्तित्व मे भक्त हृदय और सत-हृदय दोनो का सम्मिश्रण है। भक्त-हृदय ने कविता को माधुर्य दिया है, तो सत-हृदय ने ओज । दोनो के मेल से स्तुति स्तोत्र, बारहमासा चौढालिया, लावणी आदि जिन काव्यो रूपो की सृष्टि हुई, वह अपने आपमे मूल्यवान है।
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