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पूज्य श्री रत्लचन्द्र जी की काव्य साधना
२ फीकी भी नीको लगे, कहिये समय विचार ।
सबको मन हरषित करे, ज्यू विवाह मे गार ॥ ३. नोकी भी फोकी लगे, बिन अवसर की बात ।
जैसे बरणत जुद्धमे, रस सिणगार न सुहात ॥ ४. साघु वचने परखिये, विपत पडे परनार ।
सूरा जव ही परखिये, जब चालें तरवार ॥
कलापक्षः
पूज्य रत्नचन्द्रजी जैसा कि कहा जा चुका है, पहले साधक थे, लोकोपदेशक थे और बाद मे कवि । उनको कविता लोक मगल की साधनावस्था की कविता है, सिद्धि-अवस्था की नहीं । यही कारण है कि उसमे कारीगरी और कलावाजी नही, हृदय की निष्कपट अभिव्यक्ति है। अलकारो का प्रयोग हुआ अवश्य है, पर चमत्कार-प्रदर्शन के लिए नही, भावो की स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए। सामान्यत सादृश्यमूलक अलकार ही विशेप प्रयुक्त हुए है । उपमा-रूपक के प्रयोग देखिए ।
(क) उपमा
१. मधु बिन्दु सम विषया जानी २. मिल्या जीव से खीर नीर जिम, आठ कर्मभारी ३. थारी फूल सी देह पलक मे पलटे, क्या मगरूरी राखे रे । ४. राग द्वेष और मोहमिथ्या ठग, गल फांसी डारी।
बाजीगर के मरकट ज्यू, स्वाग घनाघारी ॥
५. अपनी भूल मे आप ही उलझो, ज्यू मकडी जारी। (ख) रूपक
१. अनुभव-रस तिण चाखीयो, तप की सभाली तेग। २. सजम दुतो कान लगी जब, शिव नारी परचित्त दियो रे। ३. सम्यक्त्व सूर उद्योत किया थी, मिथ्या तिमिर नसावे ।
दो जगह कवि ने विराट सागरूपक बाधे हैं। दोनो का सम्बन्ध प्रकृति से है। कवि ने प्रकृति के शृगारिक-भाव को आध्यात्मिक रूप दे दिया है। एक जगह तो प्रचलित वारहमासा को विरह के क्षेत्र से बाहर निकाल कर वैराग्यपूर्ण बारह भावना (आषाढ अनित्य भावना, श्रावण अशरण भावना, भाद्रपद ससार भावना, आसोज एकत्व भावना, कार्तिक अनन्य भावना, मगसर अशुचि भावना, पोप आश्रव भावना, माघ सवर भावना, फाल्गुन निर्जरा भावना, चैत्र धर्म भावना, वैशाख लोक
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