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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ
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सत दास विण सत कहावे, यह काई फरम कमायो ॥४॥ हाथ समरणी हिए कतरणी, लटपट होठ हिलायो । नप तप सजम आत्म गुण विन, जाणो गाटर मूंड मुंडायो॥ ५॥ पुद्गल भरम मिथ्यामति सेती, राग द्वेष ए मिटायो । आगम वयण अनूपम सुणि ने, सत पदे पहुंचायो ॥६॥ शुद्ध दशा आतम नी जाणो, सहज भवहि लभायो । "रतनचन्द" आनन्द भयो जय, आतम राम रमायो ॥७॥
सत कवियो ने जिस प्रकार "पिण्ड में ब्रह्माण्ड' की कल्पना की है, उसी प्रकार आलोचक कवि ने काया की सुन्दरता और विगदता का उदात्त वर्णन किया है, पर यह भी सकेत कर कर दिया है कि जब प्राण रुपी वणजारा इसे छोडकर चला जाता है, तब वह माटी मान रह जाती है
"इन तो फाया मे प्रभु सात समुद्र छ, कोई खारो कोई मीठो । सुन्दर काया ने छोड चल्यो वणजारो, वणजारो धुत्तारो कामण गारो । वणजारो धुतारो मोहण गारो, म्हारी देहडली छोड चल्यो वणजारो॥१॥
इण तो फाया मे प्रभु पांच रतन छ। फोई परख लो परखण हारो। इण तो फाया मे प्रभु पांच पणिहारी, कोई नीर भर छ न्यारो॥ डिग गया देवल प्रभु खिसक गया थभा, काई मटिया मे मिल गयो गारो। कहत 'रतन' मुनि सुणो भाई सजनो,
कोई भूठो छ जगत ससारो ॥२॥ नीतिकार की भांति पूज्य रत्नचद्रजी ने कतिपय शिक्षाप्रद दोह भी लिखे है-जिनसे उनकी सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति और जीवन गत व्यापक अनुभवशीलता का पता चलता है। इन दोहो मे सगति की प्रभावना अवसर की अनुकूलता-प्रतिकूलता, विपत्ति के समय परीक्षण आदि वातो की चर्चा की की गयी है । यहाँ उदाहरण के रूप मे चार दोहे प्रस्तुत है
१. सगति सोभा उपज, निरख देख यह बयण ।
सोई कन्जल आरसी, सोई कज्जल नयण ॥
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