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________________ पूज्य श्री रत्लचन्द्र जी की काव्य-साधना "अब सुण सत गुरु की सीख घरो मन प्राणी, तुम करो घरम सं हेत मिटे जम धानी। वान शील तप भाव घरो चित ज्ञानी, देव धर्म गुरु चित सेवो जिन-धाणी ॥ दुर्लभ मनुषा देह लही गुण खानी, ऐसा अवसर बहुरि मिले कब आनी । दान शील तपभाव हिए मे घर रे, सील सुगुरु की मान जगत सुतिर रे" ॥ जीवन की नश्वरता का बोध कराते हुए भी कवि ने जीव को चेतावनी दी है"किसकी कामण किसकी जामण, किस की है घर वर काया रे। स्याही गई सफेदी आई, तू फूंक फूंक पग पर रे ॥" इसके लिए आत्मज्ञान का होना सबसे आवश्यक है। यह आत्मज्ञानोपलब्धि बिना सम्यक्त्व के नहीं होती। जिसको शुद्ध सम्यक्त्व आ जाता है, उसको किसी बात की कमी नहीं रहती 'निरमल शुद्ध सम्यक्त्व जिन पाई रे, उनके कमी रहे नहीं काई । कवि अपने आध्यात्मिक एव व्यावहारिक उपदेशो मे भी कबीर आदि सतो से प्रभावित मालूम पड़ता है। यह प्रभाव दो रूपो में दिखाई देता है । एक तो प्रचलित धर्माडम्बर के विरूद्ध कडी चेतावनी के रूप मे, दूसरे 'पिण्ड में ब्रह्माण्ड' की कल्पना के रूप मे । प्रथम रूप मे भेषधारियो की खबर लेते हुए कवि ने कहा है "भेषधर यूं ही जनम गमायो। लच्छण स्याल, साग परि सिहे को, खेत लोगां रो खायो ॥१॥ कर कर कपट निपट चतुराई आसण बढ़ जमायो । अंतर भोग, जोग है बाहिर, बक ध्यानी बल छायो ॥ २ ॥ कर कर कपट निपट निजरागी, दया धर्म मुख गायो । सावध निरवद्य बहुत प्ररूप, अन्तर भेद न पायो ॥३॥ वस्त्र पात्र आहार थानक मे, सबला दोष लगायो । ३२३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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