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________________ गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृनि-ग्रन्य तो कभी आनन्द की वर्षा का साक्षात् अनुभव किया "गगन गरज वरस अभी, बादल गहर गंभीर । चहुँ दिसि दमक दामिनी, भोज दास कबीर ॥ पूज्य रतनचन्द्रजी ने भी परमात्म-मिलन ( आत्म-ज्ञान ) को आनन्दानुभूति का वर्णन करने के लिए 'मम्यकत्व-धावण' का विराट रूपक वाधा है "सम्यक्त्व श्रावण आयो, अब मेरे मम्यक्त्व श्रावण आयो। घटा ज्ञान की जिनवर ने भापी, पावम सहन सुहायो ॥१॥ ग्रीष्म ऋतु मिय्यात मिटानी, अनुभव पवन सुहायो । ऊंची ध्वनि गुरु गरजन लागे, भव्य मोर चित भायो॥२॥ निज-गुण दामिनि चमकण लागी, ज्ञान-नीर वरपायो। तप जप नदिया चलत होया मे, ममता तपत मिटायो॥३॥ सम्यक्त्व श्रोता तरवर उल्हमे, श्रुतज्ञान फल छायो । अर्क जवासा जिम मिय्याती, सूफत होत दुसायो ॥४॥ सम्यक्व घरती अमृत निजगुण, वर्ष सेत अधिकायो । मिथ्या घरती लोभ उपरड़ी, दुर्गन्ध द्वेष बघायो ॥ ५॥ श्री जिनवाणी अमिय ममाणी, मुक्ति मारग बरसायो । "रतनचन्द्र" कर जोडि जम्प, इस वाणी सरणायो ॥ ६॥ मक्षेप में कहा जा सकता है कि आलोच्य कवि को जितनी मफलता स्तोत्र-माहित्य में मिली है, उतनी इतिवृत्तात्मक वर्णन में नहीं । माधु-जीवन की कठोरता और श्रावक-धर्म के व्रत नियमो के वर्णन में गास्त्रीयता ही मामने आई है, कवित्व को महज स्फुरणा नहीं। कबीर की विरहिन आत्मा में जो तडफ, पिपामा और अधीरता है, उसकी झांकी यहां नहीं।। भक्ति के अतिरिक्त नीति की बात भी आध्यात्मिक उपदेश के अन्तर्गत कवि ने खुलकर कही है। तात्विक मिद्धान्तो का प्रतिपादन दो रूपों में हुआ है। पहले म्प में कवि ने मार्वजनीन तथ्यों की विवेचना की है, तो दूसरे रूप में खण्डनात्मक शैली को अपनाकर स्वमत की पुष्टि की है । कभी जीव को संबोधना देते हुए कहा है 'सुन जीवड़ला, मानव भव लहिर्ने, महिला मत खोवो।' क्योकि चार गतियो में मनुष्य गति ही सर्वश्रेष्ठ है। ऐमी गति पाकर उसे सफल बनाने के लिए गुरु की सीख माननी चाहिए ३२२
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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