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पूज्य श्री रलचन्द्र जी की काव्य-साधना
अमल मे अचल निराकार ज्योतीश तुम,
अलख परमात्मा परम स्वामी । जगत लोचन तुम ही जगत आधार'
परम कृपाल दया-सिन्धु स्वामी । भगत वत्सल भव्य जीव तारक तुम्ही,
निज रूप गुण रमण शिव सुख पामी ।" इसका ध्यान करते ही कोटि-कोटि सकट टल जाते है, असाध्य रोग गल जाते है और 'घट घट अन्दर आनद प्रगटे उलटो हियडो हरष भरो।'
भगवान की कृपा और साक्षात् अनुभूति का वर्णन करने मे हमारा कवि पीछे नही रहा है । सत कवि कबीर ने दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित कर भगवान के विरह और मिलन के जैसे गीत गाए है वैसे ही कुछेक गीत पूज्य रत्नचन्दजी ने भी लिखे है। देश-काल के अनुसार उनमे थोडा बहुत अन्तर हो सकता है, पर मूल भाव-धारा मे कोई विरोध नहीं। कबीर ने 'हरि मोर पीव, मै राम की बहुरिया' कहा, तो ग्लचद्रजी ने 'सुमता नारी' बनकर विनती की है
"आप विरहे अधिका दुख पाऊँ, मत करो मुझने न्यारी । आज्ञा लोप चलू नहीं ऊबट, मै नित आज्ञा कारी ॥
कबीर को 'सतगुरु ने दीपक देकर लोक-मार्ग बताया तो रत्नचन्द्रजी को सतगुरू ने जीव-अजीव का भेद बताकर क्रोधादि कषायो को शान्त करने के लिए सन्तोष की जडी दी
___ "सतगुरु मत भूलो एक घड़ी। बोध बीज दीयो घट अन्दर, जीव-अजीब की खबर पड़ी। क्रोष लोभ की लाय बुझावन, दोनी एक सन्तोष जड़ी ॥ गुरु के बोध देते ही गये विलाय भरम के बादल,
परमाणे पद पवन करी ।'
जीव को ब्रह्म की अनुभूति होने लगी। आत्मा परमात्मोन्मुख हो गई। कबीर ने इस मिलन दृश्य का बहुत ही सुन्दर चित्र खीचा है। भरतार राजा राम को घर आते देख कभी कबीर ने प्रतीक शैली मे कहा
'दुलहिन गावहु मगलाचार'
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