________________
गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
भाव-व्यंजना
जैन कवियो की दृष्टि गरीर की अपेक्षा आत्मा की ओर, गग की अपेक्षा विराग की ओर तथा प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्ति की ओर अधिक रही है। यही कारण है कि जैन-काव्य की वाटिका मे कामना को उभाडने वाले वामना के रगीन चित्र नही मिलेंगे वरन् मिलेंगे भावना को पवित्र बनाने वाले सुन्दर, सात्विक पूजा के फूल । पूज्य श्री रलचन्द्रजी की कविता आरभ से अत तक इमी शान्त ग्म मे मिक्त है । यह मही है कि कवि ने कुछेक कथानक ऐसे भी चुने है, जिनमे शृ गार रम की धाग प्रवाहित करके उमका शान्त रम मे पर्यवसान किया जा सकता था, पर कवि को गायद इसके लिए अवकाग नहीं मिला। उसने "चौढालियो" के रूप मे जो वृत्त अपनाया है, वह रम-परिपाक की कोटि तक नहीं पहुंच पाया है। केवल अभिधेय अर्थ मे अपनी बात कह कर उद्देश्य (धार्मिक) की पूर्ति भर कर सका है।
पर भक्ति-भावना को लेकर तीर्थकरो के चरणो मे जीव की ओर मे जो उद्गार प्रकट हुए हैं उनसे भगवान की महानता का ही पता नही लगता वरन् जीव की आकुल नउफन और दैन्य-भावना की भी थाह मिलती है । आदिनाथ की स्तुति करता हुआ कवि कहता है--
___ "आदि जिन अर्ज सुणो म्हारी। रागद्वप और मोह मिथ्या ठग, गल फांसी डारी। बाजीगर के मरकट ज्य, स्वाग घना धारी॥ भूल्यो निज-गुण पर-गुण राज्यो, छलबल अधिकारी। अपनी भूल मे आपही उलझो ज्यू मकडी जारी॥
कवि कितना विवश है, लाचार है, निस्महाय है, उसे कौन इस समार मागर मे पार उतारे? कौन उसकी आत्मा को शान्ति दे ? कौन उसकी सुपुन आत्म-शक्ति को जागृत करे ? उमे एकदम शान्तिनाथ भगवान का ध्यान आता है
"शान्ति करता श्री शान्ति जिन सोलमा,
मन हपं घर चरण जुग शीश नाउँ । जन्म अरू मरण दुख दूर करवा भणी,
एक जिन राज को शरण आऊँ ।"
क्योकि यही शातिनाथ तो शिव, विष्णु, ब्रह्मा, मब कुछ है। मगुण-निर्गुण से परे यही तो अलख परमात्मा है । यही तो विश्व-लोचन और जगदाधार है--
ब्रह्मज्ञानी चिदानन्द शिवरूप तू,
विष्णु जगदीश तू अमर नामी ।
३२०