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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि ग्मृति-प्रन्य था कि वारह वर्ष की अवस्था में ही वह लोक-कल्याण की भावना में माघना के पथ पर बट चला।' वि० स० १८६२ भाद्रपद शुक्ला छठ को नारनौल (पटियाला) में परम तपस्वी एव त्यागी मुनि श्री हरजीमल के हायो इनकी विधिवत् दीक्षा हुई। दीक्षा होने के बाद पडित रत्न श्री लक्ष्मीचन्द्र जी महाराज के मानिध्य में रहकर लगातार १८ वर्षों तक इन्होंने न्याय, व्याकरण, काव्य, दर्शन, ज्योतिप, छन्द, अलकार, रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिपद् आदि जन-अर्जन माहित्य का गहन अध्ययन किया। माधना काल के ६० वर्षों में ये राजस्थान, पजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि परिचित-अपरिवित क्षेत्रों में घूम-घूम कर धर्म प्रचार करने रहे । इनके गियों में मुनि श्री कवरसनजी, विनयचन्द जी, चतुरभुज जी आदि प्रमुख है । ये कवि, तपस्वी और माधक ही नहीं थे, अपने विषय के प्रकाड पटित, प्रबुद्ध विचारक और प्रचण्ड गास्त्रायी भी थे । यह गाम्यायं केवल जैन मुनियों और पडितो के माय ही नहीं हुआ वरन् अग्रेज पादरी मिस्टर जैकब तक मे हा। उनकी विपय-प्रतिपादन की शैली आकर्षक और रोचक ही नहीं थी, प्रभावक और गट भी थी। वि० म० १९२१ वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को चार दिन के अनशन (सयारा) से जैन भवन लोहामी आगरा में उनका स्वर्गवास हुआ। पूज्य श्री रतनचन्द्र जी का व्यक्तित्व बडा आकर्षक था । म्वाध्याय, प्रवचन और माहित्य-सृजन यही तो इनके जीवन का व्यमन था। गरीर में दुर्बल, स्वप वस्त्र-यात्रादि का धारक यह रतनमुनि अपने मनोवल में कितना दृढ और मजबूत या, इमका अनुमान तो उमी में लगाया जा सकता है कि वह मामान्यत प्रतिदिन २८ घटो में मे २१ घट स्वाध्याय, ध्यान आदि में लगाता और रात्रि में केवल तीन घंट नौद लेता। काव्य-रचना पूज्य रत्न जी पहले माधक, गास्त्रन और और बाद में कवि थे । कविता उनका व्यवमाय नही था । जब कभी तरग में आकर भव्य जीयो को हृदय के माध्यम मे ममार की स्थिति, जीव और ब्रह्म के स्वरूप, निर्मल आचार-विचार आदि की झांकी बताते तो महज कवित्व का स्फुरण होता । यह सहज कवित्व विभिन्न हस्तलिखित पत्रो में लिपिवद्ध है । मुनि श्री श्रीचन्द जी ने नमूने के रूप में 'रल-ज्योति १ कहा जाता है कि नव इनकी ११-१२ वर्ष की अवस्था थी, तब एक दिन ये सुन्दर बलो की जोडी लेकर अपने घर से जगल मे अपने खेत को जा रहे थे। रास्ते में अचानक एक भूसे शेर ने इन पर आक्रमण किया । वृक्ष पर चढकर इन्होने तो अपने प्राण वचा लिए पर एक बल का शिकार हुआ। इस भयानक दृश्य ने वालक रलचन्द्र को ससार से विरक्त कर दिया और मुनि श्री हरजीमल जी के उपदेशों ने तो उसे इतना अधिक प्रभावित किया कि वह साधु बने विना न रहा।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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