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पूज्य रत्नचन्द्र जी की काव्य-साधना
डा० नरेन्द्र भानावत एम० ए० पी-एच० डी० +++++++++++++++++++ ++++++
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जैन-साहित्य विविध और विशाल है । जैन कवियो ने हिन्दी काव्य-धारा को विपय की व्यापकता और गरिमा ही नही दी, रूप की विविधता और शिल्प की सहजता भी दी। हिन्दी की रीतिकालीन कविता (सवत १७०० से १९००) जहाँ वासना के क्षार जल मे खोकर अपने उपास्य को साधारण लौकिक पुरुप के रूप में चित्रित कर रही थी, वहां अपने अन्तराल मे भक्ति की प्रशान्त-धारा को समेटे जैन काव्य धारा सामान्य मानव को आत्म-साधना के बल पर-परमात्म-पद पर प्रतिष्ठित कर रही थी। पूज्य श्री रत्न चन्द्र जी इसी काव्य धारा के बीच उठने वाले एक आवर्त थे, जो अपने आप में निर्मल और निर्विकार ही नही, तेजस्वी और कान्तिमान भी थे । उन्नीसवी शती के हिन्दी कवियो में इनका विशिष्ट स्थान है । अपनी अध्यात्म भावना, तप-साधना और मधुर भक्ति की निश्छल व्यजना के कारण ये तत्कालीन कवियो-पद्माकर, ग्वाल, ठाकुर, दीनदयाल गिरि आदि से अलग जान पड़ते है।
जीवन-वृत्त
पूज्य श्री रत्लचन्द्र जी का जन्म वि० स० १८५० भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी को सिघाणा शहर के समीप तातीजा (जयपुर) नामक गाँव मे हुआ । अपने पिता गुर्जर क्षत्रिय कुल भूषण चौधरी गगाराम जी से इन्हे विरासत मे क्षत्रियोचित वीरत्व मिला, जो साधनाकाल मे कठोर परीषहो के आगे भी स्वाभाविक दीप्ति से जगमगाता रहा । माता सरूपादेवी ने बालक रतनचन्द्र को सच्चे रल की तरह परख-परखकर बडा किया पर इस 'रत्न' को अपना प्रकाश अपने मे ही बाधकर रखना अच्छा नहीं लगा । यही कारण
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