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________________ गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्य गद्य मे वे पृथक् किए जा सकते हैं यदि सस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार गद्य मे भी काव्य की कल्पना की जा सके तो काव्य और सगीत को भी पृथक् करना सम्भव हो सकेगा। सस्कृत साहित्य में 'कादम्बरी इस गद्य-मय काव्य का एक उत्तम उदाहरण है । आधुनिक 'नयी कविता' में भी सगीत से काव्य के पृथक्करण का प्रयल किया जा रहा है । विचारणीय वात यह है कि क्या सगीत से काव्य का पृथक्करण सभव और व्यावहारिक है। भारतीय शब्द-दर्शन इस रहस्य को समझने में हमारी सहायता कर सकता है । भारतीय शब्द-दर्शन मुखर शब्द के अतिरिक्त शब्द के अन्य तीन आन्तरिक रूप मानता है । ये शब्द के मानसिक तथा आत्मिक रूप ही हो सकते है । शब्द के इन रूपो की भूमिका में अर्थ और भाव की लय की सगति हो सकती, जिसे कुछ नये कवियो का दुराग्रह एव उपहास का विषय ममझा जाता है । अर्थ और भाव की यह लय सूक्ष्म होती है। यह लय काव्य के अर्थ और भाव की अभिव्यक्ति को आन्तरिक भगिमा में उत्पन्न होती है। यही लय वैज्ञानिक गद्य को काव्यमय गद्य से पृथक करती है । इम आन्तरिक लय का मुखर शब्द की सगीतमय लय मे भी स्फोट होता है । इतना अवश्य है यह सगीत की लय गद्य मय काव्य मे अधिक स्फुट नही होती । छन्द अथवा छन्दहीन काव्य में अधिक स्फुट होने पर ही वह प्रकट एव सुग्राह्य होती है। आधुनिक 'नयी कविता' उसे अल्पतम परिमाण में ग्रहण करने का प्रयत्नकर रही है। ऐसी स्थिति में आन्तरिक लय को स्वीकार करने पर आत्मा के आन्तरिक मगीत की लय मे अनुप्राणित मुखर गब्द को ही काव्य की भावी परिभाषा कह सकते है। मुखर सगीत की लय को काव्य का आवश्यक लक्षण न मानकर ही काव्य-शास्त्र मे शब्द और अर्थ के 'साहित्य' को काव्य का लक्षण कहा गया है । इस प्राचीन परिभाषा मे स्वर और लय का कही मकेत नही है । शब्द के साथ अर्थ के अविभाज्य सम्बन्ध को ही काव्य का पर्याप्त लक्षण माना गया है। शब्द ही अर्थ का माध्यम है किन्तु काव्य-शास्त्र में अर्थ को ही अधिक महत्त्व दिया गया है । रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द भी अर्थ की दृष्टि से ही काव्य बनता है। अर्थ का, स्वरूप और उसकी अभि व्यक्ति की भगिमा ही काव्य के दो विधायक तत्त्व है। केवल 'अर्थ' विज्ञान और दर्शन बन जाता है। शब्द की विशेष अभिव्यक्ति को विशेप भगिमा ही उसे कान्य वनाती है। इस अभिव्यक्ति की भगिमा के साथ अभिन्न भाव से ही वह शब्द 'काव्य' का रूप ग्रहण करता है । यही 'शब्दाथों सहितो' की प्राचीन परिभाषा का मर्म है। काव्य की इस अभिव्यक्ति का माध्यम सार्थक शब्द है, जो सगीत के स्वर से भिन्न है । काव्य की प्राचीन परिमापाओ और आधुनिकतम मान्यताओं के अनुसार सगीत से काव्य का कोई आवश्यक सम्बन्ध नही है । यह प्राचीन और नवीनमत का अद्भुत ऐक्य है। विवेक की दृष्टि से शब्द के सूक्ष्म रूपो की आन्तरिक लय को सगीत मानने पर ही काव्य के साथ सगीत का सम्बन्ध आवश्यक माना जा सकता है । किन्तु यह सम्बन्ध अत्यन्त सूक्ष्म, सदिग्ध और विवादास्पद है । अत अर्थ की अभिव्यक्ति की ३१४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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