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काव्य और संगीत
चाहता है । इसी प्रकार 'स्वर' शब्द का लययुक्त रूप है। इस लय की 'योजना' ही सगीत बन जाती है। 'लय' स्वर का उतार चढाव है । इस लय - पूर्ण स्वर के विशेष सस्थान 'राग' कहलाते है । शुद्ध सगीत की दृष्टि से संगीत की लयपूर्ण स्वर-योजना मे अर्थ अथवा भाव का सयोग आवश्यक नही है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार 'नयीकविता' के कवि भाव में लय का योग आवश्यक नही मानते । वाद्य संगीत मे इस अर्थ-रहित स्वर योजना मे शुद्ध सगीत का रूप देखा जा सकता है। कण्ठ के सगीत मे केवल आलाप और तान मे यह शुद्ध सगीत मिल सकता है ।
बाद्य-संगीत तथा आलाप और तान के अतिरिक्त अन्य सामान्य सगीत मे प्राय अर्थं एव भाव का योग मिलता है । स्वर और भाव का योग सगीत का सामान्य रूप है । स्वर और भाव का यह सयोग इतना घनिष्ठ एव स्वाभाविक है कि केवल वाद्य संगीत के अर्थ - रहित स्वर मे भी भाव का उद्गम होता है । तन्त्री - नाद की लय मे भी एक भाव उत्पन्न हो जाता है । इस सहज भाव के सश्लेष से ही वाद्य संगीत मधुर एव लोक प्रिय बनता है । किन्तु इतना मानना होगा कि यह भाव बाद्य-संगीत के स्वरो का अभिप्रेत नही है, स्वर योजना के क्रम मे इसका सहज स्फोट होता है। साथ ही यह भी मानना होगा कि अर्थ और भाव के बिना सगीत कम लोकप्रिय होता है । इसीलिए सार्थक सगीत वाद्य संगीत की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय रहा ह ।
अर्थ और भाव से रहित सगीत की कल्पना वाद्य संगीत के रूप मे की जा सकती है । किन्तु कण्ठ के सगीत मे आलाप एव तान के अतिरिक्त अर्थ-रहित सगीत की कल्पना करना कठिन है। आलाप और तान अपने आप मे पूर्ण संगीत का निर्माण नही करने, वे कण्ठ संगीत के अग मात्र है । उस कण्ठ संगीत का मुख्य रूप अर्थ सहित शब्द से ही बनता है । इतना अवश्य है कि सगीत मे अर्थवान् शब्द की अपेक्षा स्वर - विधान की प्रधानता होती है। काव्य की तुलना मे संगीत मे स्वर - विधान ही प्रधान होता है । स्वर - योजना की विपुलता ही सगीत का मुख्य लक्षण है। शास्त्रीय संगीत मे अल्प शब्द और अल्प अर्थ के आधार मे विपुल स्वर-योजना की साधना होती है । ख्याल और ठुमरी मे एक पक्ति ही विपुल स्वरयोजना का पर्याप्त आधार बन जाती है । सामान्यजन सगीत के स्वर-विधानो की जटिलताओ से परिचित न होने के कारण इस शास्त्रीय संगीत का आनन्द नही ले पाते किसी भी कला का आस्वादन उस कला के विधान के ज्ञान पर निर्भर है। शास्त्रीय संगीत के आलोचक उसकी आलोचना कला की दृष्टि से करते है । सिनेमा का संगीत स्वर-योजना और सार्थक शब्दो के समान अनुपात के कारण अधिक लोकप्रिय होता है । सामान्य जन सगीत की स्वर योजना की अपेक्षा अर्थ और भाव से अधिक परिचित होते है । अर्थ ही भाव मे अल्प स्वर - योजना का विधान उन्हे सह्य और प्रिय प्रतीत होता है ।
जिस प्रकार अर्थ और भाव से रहित कण्ठ-सगीत की कल्पना कठिन है, उसी प्रकार सगीत से रहित काव्य की कल्पना भी कठिन है। स्वर मे सार्थक शब्द का योग अनिवार्य नही है । वाद्य संगीत मे दोनो पृथक हो जाते है । इसी प्रकार सार्थक शब्द मे स्वर योजना का सन्निधान भी आवश्यक नही है ।
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