________________
सत्य शिव सुन्दर
सुन्दर रहते और सुन्दर की लालसा लिए रहते है, जो बेफिक्री के निरे वर्तमान मे रहते है और जिनमे शिवतत्व पर्याप्त नहीं है-ऐसे लोग समाज मे किस स्थान पर है ? क्या माननीय स्थान पर?
दूसरी ओर वे, जिनमे जीवन का प्राण-पक्ष मूर्छित है, विधि-निषेधो से जिनका जीवन ऐसा जकडा है कि हिल नहीं सकता और तरह-तरह के आतरिक रोगो को जन्म दे रहा है, जो इतने सावधान है कि उनमे स्वाभाविकता और सजीवता ही नहीं रह जाती जो, पाबद है कि मानो जीते-जागते हैं ऐसे लोग भला किस अश तक कृतकार्य समझे जा सकते है ?
दोनो तरह के व्यक्ति सपूर्णता से दूर हैं । फिर भी यह देखा जा सकता है कि आत्मनियमन की प्रवृत्ति आनन्दोपभोग को प्रवृत्ति से किसी कदर कची ही है । जहाँ वह जीवन को दबाती है और उसे बढाने में किसी प्रकार से सहायता नहीं देती, वहां वह अवश्य अयथार्थ है और प्राण-शक्ति को अधिकार है कि उसको चुनौती दे दे । फिर भी प्रत्येक सौन्दर्याभिमुख, आनन्दोत्सुक प्रवृत्ति का धर्म है कि वह नैतिक उद्देश्यो का अनुगमन करे ।
___ अर्थात् वे कलात्मक प्रवृत्तिया जिनका लक्ष्य सुन्दर है, उन वृत्तियो के साथ समन्वय साधे ,जिनका लक्ष्य कल्याण-साधन है। दूसरे शब्दो मे कला-नीति-समन्वित हो। और इसके बाद कला और नीति दोनो ही धर्म-समन्वित हो। । धर्म का आशय यहाँ मतवाद नही-"धर्म" अर्थात् प्रेम-धर्म
"सत्य, शिव, सुन्दर" यह व्याख्यात्मक पद ही नही है, सजीव पद है। जीवन का लक्षण है, गति है । इस पद मे गति है । उद्बोधन है । सुन्दर की ओर, फिर सुन्दर से क्रमश शिव और सत्य की ओर प्रयाण करना होगा। यह ज्वलत भाव उसमे भरा है । यो भी कह सकते है कि सत्य को शिवरूप मे उतारकर ध्यान मे लाओ, क्योकि यह सरल है । और शिव को भी सुन्दर रूप से निहारो, क्यो कि यह और भी सहज स्वाभाविक है । किन्तु सुन्दर की मर्यादा है, शिव की भी मर्यादा है । और दोनो ही की मर्यादा है- सत्य । सत्य मे सब-कुछ अपनी मर्यादाओ समेत मुक्त हो जाता है ।
1000
३११