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गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति ग्रन्य
मनुष्य और मनुष्य-समाज के मगल-पल को प्रधानता देने वाले नीति-नियम जब-तब इतने निर्मम हो गए है कि जीवन उनसे व्यवस्था पाने और सवरने के बजाय कुचला जाने लगा है । तव इतिहास के नाना कालो मे, प्रत्युत प्रत्येक काल में, जीवन के आनन्द-पक्ष ने विद्रोह किया है और वह फूट उभरा है। इधर जब इस भोगानन्द के पक्ष में अतिगयता हो आई है, तब फिर आवश्यकता हुई है कि नियम-कानून पुन बने और जीवन के उच्छृङ्खल अपव्यय को रोक कर मयत कर दे ।
___ इस कयन को पुष्ट करने के लिए यहां इतिहास में से प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है । सव देशो और मव कालो का इतिहाम ऐसे उदाहरणो से भरा पड़ा है । स्वय व्यक्ति के जीवन मे डम तय्य को प्रमाणित करने वाले अनेकानेक घटना-अयोग मिल जाएँग । निश्चय ही वैसे प्रमाण प्रचुर परिमाण में किसी भी गांधक को स्थापत्य-कला, वास्तु-कला, साहित्य-सगीत, मठ-मदिर दर्शन-संस्कृति और इधर समाज-नीति और राजनीति के क्रमिक विकास के अध्ययन में ये जगह-जगह प्राप्त होगे।
___ व्यक्तित्व के निर्माण में प्रवृत्ति का और निवृत्ति का समान भाग है । जहा गिव प्रधान है-वहा निवृत्ति प्रमुख हो जाती है। वहाँ वर्तमान को योडा-बहुत कीमत में स्वाहा करके भविष्य बनाया जाता है । जहा मुन्दर लक्ष्य है, वहाँ प्रवृत्ति मुस्य और निवृत्ति गौण हो जाती है । वहाँ भविष्य पर वेफिक्री की चादर डाल कर वर्तमान के रस को छक कर लिया जाता है । वहा जान लक्ष्य नही है, प्राप्ति भी लक्ष्य नहीं है, मग्नता और विस्मृनि लक्ष्य है । वहाँ मुख की भभाल नहीं है, काम्य में सब कामनाओ समंत अपन को खो देने की चाह है । पहली मावना है दूसरा समर्पण है।
आरभ मे जो सकेत में कहा वही यहां स्पष्ट कह, कि आनन्दहीन साधना उतनी ही निरर्थक है, जितना साधना-हीन आनन्द निष्फन है । वह सुन्दर कैमा जो शिव भी नहीं है और गिव तो अनिवार्य मुन्दर है ही । इस दृष्टि से मुझे प्रतीत होता है कि सुन्दर को फिर गिवता का ध्यान रखना होगा। और शिव को मत्याभिमुख रहना होगा । गिव सत्याभिमुख है, तो वह मुन्दर तो है ही।
अर्थात्, जीवन में मौदर्योन्मुख भावनाओं को नैतिक (शिवस्प) वृत्तियों के विरुद्ध होकर तनिक भी चलने का अधिकार नही है । शुद्ध नैतिक भावनाओं को खिझाती हुई, उन्हें कुचलती हुई जो वृत्तियाँ सुन्दर की लालसा मे लहकना चाहती है, वे छल कर विकृति को जन्म दिए बिना रह नही सकती । वे कही न कही विकृत है । मुन्दर नीति-विरुद्ध नहीं है । तब यह निश्चय है कि जिसके पीछे वे आवेगमयी वृत्तियाँ लपकना चाहती है, वह सुन्दर नहीं है । केवल छद्म है, विभास है, मुन्दर की मृगतृप्णिका है।
सामान्य बुद्धि की अपेक्षा से यह समझा जा सकता है कि शिव को तो हक है कि वह न दीखे, पर सुन्दर को तो मगल साधक होना ही चाहिए । जीवन का सयम-पक्ष किमी तरह भी जीवनानन्द के मध्य अनुपस्थित हुआ कि वह आनन्द विकारी हो जाता है।
अपने वर्तमान समाज की अपेक्षा में देखें तो क्या दीखता है? स्वभावत लोग जिनका जीवन रंगीन है और रगीनी का लोलुप है, जिनके जीवन का प्रधान तत्त्व आनन्द और उपभोग है, जो स्वयं
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